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________________ गा० १३-१४ ] परूवणं २१६ १८२. तत्रे द्रव्यार्थिनयस्त्रिविधः संग्रहो व्यवहारो नैगमश्चेति । तत्र शुद्धदेव्यार्थिकः पर्यायकलङ्करहितः बहुभेदः संग्रहः । [ अशुद्ध-] द्रव्यार्थिकः पर्यायकलङ्काङ्कितद्रव्यविषयः व्यवहारः । उक्तं च विशेषार्थ - यहां ऋजुसूत्रवचनसे वर्तमान वचन लिया गया है और वह वर्तमान वचन जिस काल में विच्छिन्न होता है उस कालको विच्छेद कहा है । जिसका यह अभिप्राय हुआ कि वर्तमान वचनका विच्छेदरूप काल ऋजुसूत्र नयका मूल आधार है । इस कालसे लेकर एक समयतक पर्यायभेदसे वस्तुका निश्चय करनेवाला ज्ञान ऋजुसूत्र नय कहलाता है । यह नय द्रव्यगत भेदको नहीं ग्रहण करके कालभेदसे वस्तुको ग्रहण करता है । इसलिये जब तक द्रव्यगत भेदोंकी मुख्यता रहती है तब तक व्यवहार नयकी प्रवृत्ति होती है और जबसे कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है तबसे ऋजुसूत्र नयका प्रारंभ होता है । यहां कालभेदसे वस्तुकी वर्तमान पर्यायमात्रका ग्रहण किया है। अतीत और अनागत पर्यायोंके विनष्ट और अनुत्पन्न होनेके कारण ऋजुसूत्र नयके द्वारा उनका ग्रहण नहीं होता है । यद्यपि शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये तीनों नय भी वर्तमान पर्यायको ही विषय करते हैं । परन्तु वे शब्दभेदसे वर्तमान पर्यायको ग्रहण करते हैं इसलिये उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषयको लिंगादिके भेदसे भेदरूप ग्रहण करनेवाला शब्दनय, शब्दनयसे स्वीकृत समान लिंग समानबचन आदि शब्दों द्वारा कहे जानेवाले एक अर्थ में शब्द भेदसे भेद करनेवाला समभिरूढ़नय और उस शब्द से ध्वनित होनेवाले अर्थके क्रियाकालमें ही उस शब्दको उस अर्थका वाचक माननेवाला एवंभूत नय कहा गया है । इसतरह ये शब्दादिक नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होते हुए ऋजुसूत्रनयके ही शाखा प्रशाखारूप हैं । 1 १८२. उनमें से द्रव्यार्थिक नय तीन प्रकारका है संग्रह, व्यवहार और नैगम । उन तीनोंमेंसे जो पर्यायकलंकसे रहित होता हुआ अनेक भेदरूप संग्रहनय है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक है और जो पर्यायकलंक से युक्त द्रव्यको विषय करनेवाला व्यवहार नय है वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक है । कहा भी है (१) तद्द्रव्यार्थि - अ० । “द्रव्यार्थो व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततोऽपरः ।। " - त० श्लो० पृ० २६८ घ० आ० प० ५४३ । अष्टसह० पू० २८७॥ प्रमाणनय० ७१६, २७। जैनतर्कभा० पृ० २१| "ऋजुसूत्रो द्रव्याथिकस्य भेद इति तु जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः । " - जैनतर्कभा० पृ० २१ | "पढमतिया दव्वत्था पज्जयगाही य इयर जे भणिया । ते चदु अत्थपहाणा सद्दपहाणा हु तिष्णियरा ॥ " - नयच० गा० २१७ (२) “ तत्र मूलनयस्य द्रव्यार्थिकस्य शुद्धया संग्रहः, सकलोपाधिरहितत्वेन शुद्धस्य सन्मात्रस्य विषयीकरणात् सम्यगेकत्वेन सर्वस्य संग्रहणात् । " - अष्टसह० पृ० २८७ । “तत्र सत्तादिना यः सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैततत्त्वमध्यवस्यति शुद्धद्रव्यार्थिकः सः संग्रहः । " - ध० आ० प० ५४३ । ( ३ ) " तस्यैवाशुद्धया व्यवहारः संग्रहगृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकत्वव्यवहरणात्, द्रव्यत्वादिविशेषणतया स्वतोऽशुद्धस्य स्वीकरणात् यत् सत तत् द्रव्यं गुणो वेत्यादिवत् ।" - अष्टसह० पृ० २८७ “ शेषद्वयाद्यनन्त विकल्पसंग्रह प्रस रलम्बनः पर्यायकलङ्काङ्कित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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