SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत सूत्रकारने कहीं कहीं चूर्णिसूत्रोंके आगे अंक भी दिये हैं और जयधवलाकारने उन अंकों तक की सार्थकताका समर्थन किया है। मूलपयडिविभत्तिमें एक स्थानपर शिष्य शङ्का करता है कि यतिवृषभ आचार्यने यहां यह दोका अङ्क क्यों रखा है ? तो जयधवलाकार उसका उत्तर देते हैं कि अपने मनमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये चूर्णिसूत्रकारने यहां दोका अंक स्थापित किया है। इसपर शिष्य पुनः प्रश्न करता है कि उस अर्थका कथन अक्षरोंमें क्यों नहीं किया ? तो आचार्य उत्तर देते हैं कि इस प्रकार वृत्तिसूत्रोंका अर्थ कहनेसे चूर्णिसूत्रग्रन्थ बेनाम हो जाता, इस भयसे चूर्णिसूत्रकारने अपने मनमें स्थित अर्थका कथन यहां अंकद्वारा किया, अक्षरद्वारा नहीं किया । इस उदाहरणसे चूर्णिसूत्रोंकी संक्षिप्तता और अर्थगाम्भीर्यपर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ___ जयधवलाकारने अनेक स्थलोंपर चूर्णिसूत्रोंको देशामर्षक लिखा है। अर्थात् उन्हें विवक्षित कथनके एक देशका ग्रहण करने वाला बतलाया है। और इसलिये उन्होंने कहीं कहीं लिखा है कि इससे सूचित अर्थका कथन उच्चारणावृत्तिके साहाय्यसे और एलाचार्यके प्रसादसे करता हूँ। इससे भी चूर्णिसूत्रोंका गाम्भीर्य सिद्ध होता है। इसप्रकार संक्षिप्त और अर्थपूर्ण होने पर भी चूर्णिसूत्रोंकी रचनाशैली विशद और प्रसन्न है। भाषा और विषयका साधारण जानकार भी उनका पाठ रुचिपूर्वक कर सकता है। तथा उसमें गाथाके किसी आवश्यक अंशको अव्याख्यात नहीं छोड़ा है। यद्यपि कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं जिनपर चूर्णिसूत्र नहीं पाये जाते हैं, किन्तु उन्हें सरल और स्पष्ट समझकर ही चूर्णिसूत्रकारने छोड़ दिया है। चूर्णिसूत्रोंकी रचनाशैलीके बारेमें और भी विशेष जाननेके लिए उनकी व्याख्यानशैली र पर दृष्टि डालना चाहिये । सबसे प्रथम गाथा 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' आदि पर सबसे व्याख्यान " पहला चूर्णिसूत्र निम्न प्रकार है। ‘णाणप्पवादस्स पुब्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो, तं जहा-श्राणुपुब्बी, णामं, पमाणं, वत्तव्वदा, अत्याहियारो चेदि ।' इसके द्वारा चूर्णिसूत्रकारने ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत जिस तीसरे कसायपाहुडसे प्रकृत कषायप्राभृत ग्रन्थका उपसंहार किया गया है, उसके नाम, विषय, अधिकार आदिका ज्ञान करानेके लिये पांच उपक्रमोंका कथन किया है। जिस प्रकार दार्शनिकपरम्परामें ग्रन्थके आदिमें सम्बन्ध आदि निरूपणकी प्रथा है, उसी प्रकार आगमिक परम्परामें ग्रन्थके आदिमें उक्त पांच उपक्रमोंके कथन करनेकी प्रथा है, उससे श्रोताको ग्रन्थके नामादिका परिचय हो जाता है। नामादिका निरूपण करके चूर्णिसूत्रकारने ग्रन्थके नाम पेज्जदोसपाहुड और कसायपाहुडमें आये हुए पेज्ज, दोस, कसाय और पाहुड शब्दोंके प्रकृत अर्थका ज्ञान करानेके लिये चारोंमें निक्षेपका वर्णन किया है । उसके बाद निक्षेपोंमें नययोजना करके यह बतलाया है कि कौन नय किस निक्षेपको चाहता है। इस प्रकार ग्रन्थका नाम, उसका अर्थ, उसके अधिकार आदिका निरूपण कर चुकनेके बाद चूर्णिसूत्रकार 'पेज वा दोसं वा' इत्यादि बाईसवीं गाथासे प्रकृति अर्थका (१) "जइवसहाइरियेण एसो दोण्हमको किमट्टमेत्थ विदो? सगहियठियअत्थस्स जाणावणठें । सो अत्यो अक्खरेहि किण्ण परूविदो ? वित्तिसत्तस्स अत्थे भण्णमाणे णिण्णामो गंथो होदि त्ति भएण ण परूविदो।" प्रे० का०प० ३८९ । (२) “एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउण्हं गईणं उत्तुच्चारणावलेण एलाइरियपसाएण च सेसकम्माणं परूवणा कीरदे ।" प्रे० का० पृ० १७१७ । (३) “संपहि विदियादिगाहाणमत्थो सुगमोति चुण्णिसुत्ते ण परूविदो।" प्रे० का०प० ३५९९ । “अदो चेव चुण्णिसुत्तयारेण दोण्हमेदासिं मलगाहाणं समुक्क्त्तिणा विहासा च णाढत्ता।" प्रे०का० पृ०७५४५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy