SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३-१४ ] णयपरूवणं २०१ नयाधीनः ॥७६॥” इति भिन्नकार्यदृष्टेर्वा न नयः प्रमाणं । ६१७०. कः सकलादेशः स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्ति च नास्ति दोनोंके कार्य भिन्न भिन्न दिखाई देते हैं इसलिये भी नय प्रमाण नहीं है। विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है कि 'स्वार्थ और परार्थके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका है। उनमेंसे ज्ञानात्मक प्रमाण स्वार्थ होता है और वचनात्मक प्रमाण परार्थ । श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनोंरूप है पर शेष चारों ज्ञान स्वार्थरूप ही हैं। तथा जितने भी नय होते हैं वे सब श्रुतज्ञानके विकल्प समझने चाहियें।' इससे प्रतीत होता है कि नय भी स्वार्थ और परार्थके भेदसे दो प्रकारका होता हैं। ऊपर जो वस्तुके एकदेशमें वस्तुके अध्यवसायको या ज्ञाताके अभिप्रायको अन्तरंग नयका लक्षण बतलाया है वह ज्ञानात्मक नयका लक्षण समझना चाहिये। यहां अन्तरंग नयसे ज्ञानात्मक नय अभिप्रेत है। तथा नयके लक्षणके बाद जो यह कहा है कि प्रमाणके द्वारा ग्रहण किये गये वस्तुके एकदेशमें जो वस्तुका अध्यवसाय होता है वह ज्ञान नहीं हो सकता, सो यहां ज्ञानसे प्रमाण ज्ञानका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रमाण ज्ञान धर्मभेदसे वस्तुको ग्रहण नहीं करता है। वह तो सभी धर्मोंके समुच्चयरूपसे ही वस्तुको जानता है और नयज्ञान धर्मभेदसे ही वस्तुको ग्रहण करता है। वह सभी धर्मोंके समुच्चयरूप वस्तुको ग्रहण नहीं करके केवल एक धर्मके द्वारा ही वस्तुको जानता है । यही सबब है कि प्रमाण ज्ञान दृष्टिभेदसे परे है, और नयज्ञान जितने भी होते हैं वे सभी सापेक्ष होकर ही सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं, क्योंकि नयज्ञानमें धर्म, दृष्टि या भेद प्रधान है। इसलिये सापेक्षताके बिना सभी नयज्ञान मिथ्या होते हैं। गुण या धर्म जहां किसी वस्तुकी विशेषताको व्यक्त करता है वहां उस वस्तुको उतना ही समझ लेना मिथ्या है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुमें व्यक्त या अव्यक्त अनन्त धर्म पाये जाते हैं और उन सबका समुच्चय ही वस्तु है। इस कथनका यह तात्पर्य हुआ कि नयज्ञान और प्रमाणज्ञान ये दोनों यद्यपि ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा एक हैं फिर भी इनमें विशेषकी अपेक्षा भेद है। नयज्ञान जहां जाननेवालेके अभिप्रायसे सम्बन्ध रखता है। वहां प्रमाणज्ञान जाननेवालेका अभिप्रायविशेष न होकर ज्ञेयका प्रतिबिम्बमात्र है। नयज्ञानमें ज्ञाताके अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है पर प्रमाणज्ञानमें वस्तु जो कुछ है वह प्रतिबिम्बित होती है। इसीलिये प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी कहा जाता है। इतने कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नयज्ञान प्रमाण नहीं माना जा सकता है। इसप्रकार नयज्ञान और प्रमाणज्ञानमें भेद समझना चाहिये । ६ १७०. शंका-सकलादेश किसे कहते हैं ? समाधान-कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है, कथंचित् घट अवक्तव्य है, (१) नयःन प्र-स०। २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy