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गा० १३-१४ ]
गंथणामणिदेसहेऊ ६१६६. 'पेज्जे (ज) त्ति पाहुडम्मि दु हवदि कसाय (याण) पाहुड (डं) णाम' इति गाहासुत्तम्मि पेजदोसपाहुडं कसायपाहुडं चेदि दोण्णि णामाणि उवइटाणि । तत्थ ताणि केणाभिप्पारण उत्ताणि त्ति जाणावणहं जइवसहाइरियो उत्तरसुत्तदुर्ग भणदि
* तस्स पाहुडस्स दुवेणामधेजाणि। तं जहा, पेजदोसपाहुडे त्ति वि, कसायपाहुडे त्ति वि । तत्थ अभिवाहरणणिप्पण्णं पेजदोसपाहुडं।। र्भाव हो जाता है, या ये तीनों मिलकर एक चौथा स्वतन्त्र अधिकार हो जाता है। जब इनका स्वतन्त्र अधिकार हो जाता है तब बन्ध और संक्रम ये दो अधिकार न रहकर दोनों मिलकर बन्धक नामका एक अधिकार हो जाता है। तथा आगे प्रकृतिविभक्ति अनुयोगद्वारमें 'पयडीए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते समय गुणधर आचार्यके अभिप्रायानुसार वीरसेन स्वामीने प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन तीनोंको मिलाकर एक अर्थाधिकार तथा प्रदेश विभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन तीनोंको मिलाकर एक दूसरा अर्थाधिकार बतलाया है। इस कथनके अनुसार १ पेजदोषविभक्ति, २ प्रकृति-स्थिति-अनुभागविभक्ति, ३ प्रदेश-झीणाझीण-स्थित्यन्तिकविभक्ति, ४ बन्ध और ५ संक्रम ये पांच अर्थाधिकार गुणधर भट्टारकके मतसे हो जाते हैं। तो भी 'तिण्णेदा गाहाओ पंचसु अत्थेसु णादव्वा' इस वचनमें उक्त अधिकार व्यवस्थासे कोई अंतर नहीं आता है। इसलिये ‘पेजदोसविहत्ती' इत्यादि गाथाके पूर्वार्धके अर्थका यह अभिप्रायान्तर ही समझना चाहिये । तथा यतिवृषभ स्थविरने ‘पयडीए मोहणिज्जा' इसका अर्थ करते हुए १ प्रकृतिविभक्ति, २ स्थितिविभक्ति, ३ अनुभागविभक्ति, ४ प्रदेश विभक्ति, ५ झीणाझीण और ६ स्थित्यन्तिक ये छह अर्थाधिकार सूचित किये हैं। मालूम होता है यहां यतिवृषभ स्थविरने पूर्वोक्त अधिकारों में अन्तर्भावकी विवक्षा न करके अवान्तर अधिकारोंकी प्रधानतासे ये छह अर्थाधिकार कहे हैं, इसलिये जब इनका पूर्वोक्त अर्थाधिकारोंमें अन्तर्भाव कर लिया जाता है तब ये छहों मिलकर एक अर्थाधिकार होता है और जब भेदविवक्षासे कथन किया जाता है तब ये स्वतन्त्र छह अधिकार कहलाते हैं। इसप्रकार यह अधिकार व्यवस्था भी पूर्वोक्त अर्थाधिकार व्यवस्थासे ही संबन्ध रखती है यह निश्चित हो जाता है।
१६६. 'पेज त्ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम' इस गाथासूत्र में पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत इन दोनों नामोंका उपदेश किया है। वे दोनों नाम वहां पर किस अभिप्रायसे कहे गये हैं यह बतलानेके लिये यतिवृषभ आचार्य आगेके दो सूत्र कहते हैं
* उस प्राभृतके दो नाम हैं । यथा-पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत । इन (१) गाथाक्रमांकः १। (२) णामधेयाणि आ० ।
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