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________________ गा० १३.११] अत्याहियारणिदेसो । १६५ जाता है। गुणधर भट्टारक जहाँ ‘पयडीए मोहणिज्जा' इत्यादि तीन गाथाएं पाँच अर्थाधिकारोंके विषयका प्रतिपादन करनेवाली बतलाते हैं वहाँ यतिवृषभ आचार्यके अभिप्रायसे उक्त तीन गाथाएं चार अर्थाधिकारोंके विषयका प्रतिपादन करनेवाली सिद्ध होती हैं। किन्तु इससे मूल विषयविभागमें अन्तर नहीं समझना चाहिये । यहाँ अन्तर केवल अधिकारोंके नामनिर्देशका है। वीरसेनस्वामीने गुणधर भट्टारकके प्रथम अभिप्रायानुसार जो १ पेजदोषविभक्ति, २ स्थितिविभक्ति, ३ अनुभागविभक्ति, ४ बन्ध और ५ संक्रम ये पाँच अर्थाधिकार बतलाये हैं, यतिवृषभ स्थविर इनमेंसे दूसरे स्थितिविभक्ति और तीसरे अनुभागविभक्ति इन दोनोंको मिलाकर एक अर्थाधिकार कहते हैं । इसप्रकार पाँच संख्या न रहकर अधिकारोंकी संख्या चार रह जाती है । प्रकृतिविभक्ति आदिके अन्तर्भावके संबन्धमें कोई मतभेद नहीं है। अतः यहाँ अधिकारों के नाम गिनाते समय हमने उनका उल्लेख नहीं किया है। इसप्रकार जो गणनामें एक संख्याकी कमी आ जाती है उसकी पूर्ति यतिवृषभ स्थविर वेदक इस अधिकारके उदय और उदीरणा इसप्रकार दो भेद करके और उन्हें दो अर्थाधिकार मान कर कर लेते हैं और इसप्रकार उन्होंने 'चत्तारि वेदयम्मि दु' इस प्रतिज्ञावाक्यका अनुसरण नहीं किया है। तथा गुणधर भट्टारकने संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धि ये दो १३ वें और १४ वें नम्बरके अर्थाधिकार माने हैं किन्तु यतिवृषभ स्थविर संयमासंयमलब्धिको तो स्वतंत्र अर्थाधिकार मानते हैं पर गाथामें आये हुए 'संजमे' पदको वे उपशामना और क्षपणासे जोड़ कर संयमलब्धि नामके अधिकारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानते और इसप्रकार उन्होंने 'दोसु वि एक्का गाहा' इस प्रतिज्ञाका अनुसरण नहीं किया है। इसप्रकार यहाँ जो एक संख्याकी कमी हो जाती है उसकी पूर्ति वे अद्धापरिमाणनिर्देशको १५ वा अर्थाधिकार मान कर करते हैं। पन्द्रह अर्थाधिकारोंके नामकरणके विषयमें गुणधर भट्टारक और यतिवृषभ स्थविर इन दोनों में यही अन्तर है। वीरसेनस्वामीने तीसरे प्रकारसे भी अधिकारोंके नाम सुझाये हैं और वे लिखते हैं कि इसप्रकार चौथे पाँचवें आदि प्रकार से भी अधिकारोंके नाम कल्पित कर लेना चाहिये । यहाँ वीरसेनस्वामीका यह अभिप्राय है कि मूल रूपरेखाका अनुसरण करते हुए कहीं भेदकी प्रधानतासे, कहीं अभेदकी प्रधानतासे, कहीं प्रकृतिविभक्ति आदिके अन्तर्भावके भेदसे, कहीं अद्धापरिमाणनिर्देशको स्वतन्त्र अधिकार मान कर और कहीं उसे स्वतंत्र अधिकार न मान कर जितने विकल्प किये जा सकें वे सब इष्ट हैं। ऐसा करनेसे गुणधर भट्टारककी आसादना नहीं होती है, क्योंकि यहाँ उनकी आसादना करनेका अभिप्राय नहीं है। आसादना करनेका अभिप्राय तो तब समझा जाय जब उनके वचनोंको अयथार्थ कह कर उनकी अवज्ञा की जाय । विकल्पान्तरका सुझाव तो गुणधरके वचनोंको सूत्रात्मक सिद्ध करके उनमें चमत्कार लाता है। यही सबब है कि यतिवृषभस्थविरने अन्य प्रकारसे पन्द्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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