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________________ १४ जयधवलासहित कषायप्रामृत यथार्थमें श्रीवर्द्धदेव, तुम्वुलूराचार्य और चूड़ामणि विषयक उक्त उल्लेख इस अवस्थामें नहीं हैं कि उनका समीकरण किया जा सके । शिलालेखमें श्री वर्द्धदेवको चूड़ामणि काव्यका रचयिता बताया है न कि चूड़ामणि नामक किसी व्याख्याका और वह भी तत्त्वार्थमहाशास्त्रकी। तथा दण्डि कविके द्वारा उनकी प्रशंसा किये जानेसे तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रीवर्द्धदेव एक बड़े भारी कवि थे और उनका चूड़ामणि नामक ग्रन्थ कोई श्रेष्ठ काव्य था जिसकी भाषा अवश्य ही संस्कृत रही होगी; क्योंकि एक संस्कृत भाषाके एक अजैन कविसे यह आशा नहीं होतो कि वह धार्मिक ग्रन्थों पर टीका लिखनेवाले किसी कन्नड़ कविकी इतनी प्रशंसा करे । इसीप्रकार यदि भट्टाकलङ्कके शब्दानुशासनवाले उल्लेखमें कोई गल्ती नहीं है तो उसका भी तात्पर्य तुम्बुलूराचार्यकी चूड़ामणि व्याख्यासे नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि श्लोक संख्याके प्रमाण के अन्तरको महत्त्व न भी दिया जाये तो भी यह तो नहीं भुलाया जा सकता कि उसे भट्टाकलंक तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी टीका बतलाते हैं। हां, यदि उन्होंने भ्रमवश ऐसा उल्लेख कर दिया हो तो बात दूसरी है। राजावलिकथेमें भी तुम्बुलूराचार्यकी चूड़ामणि व्याख्याका उल्लेख है, उसकी भाषा भी कनडी बतलाई है, और प्रमाण भी ८४ हजार ही बतलाया है। चामुण्डरायने अपने चामुण्डराय पुराणमें, जो कि ई० स० ६७८ में कनडी पद्योंमें रचा गया था, तुम्बुलूराचार्यकी प्रशंसा की है। तुम्बुलूराचार्य और उनकी चूड़ामणि व्याख्याके सम्बन्धमें हमें केवल इतना ही ज्ञात हो सका है और उस परसे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तुम्बुलूराचार्य नामके कोई आचार्य अवश्य हो गये हैं, और उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थोंपर चूड़ामणि नामकी कनडी व्याख्या लिखी थी, जिसका प्रमाण ८४ हजार था। जयधवलामें कितने ही स्थलोंपर अन्य व्याख्यानाचार्योंका अभिप्राय दिया है। और उनके अभिप्रायोंकी आलोचना भी की है। कुछ स्थलों पर चिरंतनव्याख्यानाचार्योंके मतोंका __ उल्लेख किया है और उच्चारणाचार्यके मतके साथ उनके मतकी तुलना करके अन्य उच्चारणाचार्यके मतको ही ठीक बतलाया है। ये चिरन्तन व्याख्यानाचार्य कौन थे न्याख्याएँ यह तो कुछ कहा नहीं जासकता। शायद इस नामके भी कोई व्याख्यानाचार्य हुए ____ हों। किन्तु यदि चिरन्तन नाम न होकर विशेषण है ता चिरन्तन विशेषणसे ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य व्याख्यानाचार्योंसे वे पुरातन थे अन्यथा उनके पहले चिरन्तन विशेषण लगानेकी आवश्यकता ही क्या थी ? सम्भव है वे उच्चारणाचार्यसे भी प्राचीन हों। इन या इनमेंसे कुछ व्याख्यानाचार्योंने कषायप्राभृत या उसके चूर्णिसूत्रोंपर व्याख्याएँ लिखी थीं, ऐसा प्रतीत हाता है। यदि ऐसा न होता तो उनके व्याख्यानोंका कहीं कहीं शब्दशः उल्लेख जयधषलामें न होता। इनमेंसे कुछ व्याख्याएं तो उन व्याख्याओंसे अतिरिक्त प्रतीत होती है जिनका उल्लेख (१) भट्टाकलंकके इस उल्लेखके आधार पर धवलाकी प्रस्तावनामें यह मान लिया गया है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्रसिद्धि तत्त्वार्थमहाशास्त्र नामसे रही है। किन्तु जब तक इस प्रकारके अन्य उल्लेख न मिलें और यह प्रमाणित न हो जाय कि शब्दानुशासनमें जिस चूडामणि व्याख्याका उल्लेख है वह तुम्बूलूराचार्यकी सिद्धान्त ग्रन्थोंपर रची गई चूडामणि व्याख्या ही है तब तक यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सिद्धान्त ग्रन्थोंकी तत्त्वार्थ महाशास्त्रके नामसे प्रसिद्धि रही है । (२) “ एसो उच्चारणाइरियाणमहिप्पाओ अण्णे पुण वक्खाणाइरिया एवं भणंति।" प्रे. का. पृ. ११३८ । “एसा उच्चारणाप्पावहुअस्स संविट्ठी संपहि चिरन्तवक्खाणाइरियाणमप्पावहुमं वत्तइस्सामो।" प्रे. का. १४७९ । (३) "चिरंतणाइरिवक्वाणं पि एस्थ अप्पणो पढमढविवक्खाणसमाणं ।" प्रे.का. १४८३ । अण्णेसि वक्खाणाइरियाणमहिप्पाओं ... 'सं जहा... 'एबस्स भावत्थो । प्रे. का. ६५६३ पृ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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