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________________ प्रस्तावना इन्द्रनन्दिने शामकुण्डाचार्यरचित पद्धतिके पश्चात तुम्बुलूराचार्य रचित चूड़ामणि नामकी तुम्बुलूरा- व्याख्याका उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह व्याख्या छठवें खण्डके सिवा चार्यकृत शेष दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंपर थी और इसका परिमाण ८४ हजार था। तथा भाषा चूड़ामणि कनाडी थी। जयधवलामें इस व्याख्या या उसके कर्ताका कोई उल्लेख हमारे । देखने में नहीं आया। भट्टाकलङ्क नामके एक विद्वानने अपने कर्नाटक शब्दानुशासनमें कनाडी भाषामें रचित चूड़ामणि नामक महाशास्त्रका उल्लेख किया है। और उसे तत्त्वार्थ महाशास्त्रका व्याख्यान बतलाया है तथा उसका परिमाण भी ६६ हजार बतलाया है। फिर भी धवलाकी प्रस्तावनामें यह विचार व्यक्त किया गया है कि यह चूड़ामणि तुम्बुलूराचार्यकृत चूड़ामणि ही जान पड़ती है। श्रवणवेलगोलाके ५४ वे शिलालेखमें चूड़ामणि नामक काव्यके रचयिता श्री वर्द्धदेवका स्मरण किया है और उनकी प्रशंसामें दण्डी कविके द्वारा कहा गया एक श्लोक भी उद्धृत किया है। यथा "चूडामणिः कवीनां चूडामणिनामसेव्यकाव्यकविः । श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाहतुं ॥ य एवमुपश्योकितो दण्डिना जहोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः। श्री वर्द्धदेव संधत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीं ॥" सम्भवतः इसी परसे चूडामणि नामकी समानता देखकर कुछ विद्वानोंने तुम्बुलूराचार्यका असली नाम वर्द्धदेव बतलाया है। श्री युत पै महाशयका कहना है कि भट्टाकलंकके द्वारा स्मृत चूड़ामणि तुम्वुलूराचार्यकृत चूड़ामणि नहीं हो सकता, क्योंकि पहले का परिमाण ९६ हजार बतलाया गया है और दूसरे का ८४ हजार । अतः पै महाशयका कहना है कि इन्द्रनन्दिके श्रुतावतार की 'कर्णाटभाषयाकृत महतीं चूड़ामणिव्याख्याम्' पंक्ति अशुद्ध मालूम होती है। इसमें आये हुए 'चूड़ामणि' पद को अलग न पढ़कर आगेके 'व्याख्यां' शब्दके साथ मिलाकर 'चूड़ामणिव्याख्याम्' पढ़ना चाहिये। तब उस पंक्तिका अर्थ ऐसा होगा-'तुम्वुलूराचार्यने कनड़ीमें चूड़ामणि की एक बड़ी टीका बनाई ।' इसका आशय यह हुआ कि श्री वर्द्धदेवने तत्त्वार्थमहाशास्त्र पर कनड़ोमें चूड़ामणि नामकी टीका लिखी थी जिसका परिमाण ६६हजार था और उस चूड़ामणिपर तुम्बुलूराचार्यने ८४ हजार प्रमाण टीका बनाई थी। इस प्रकार पै महाशयने विभिन्न उल्लेखोंके समीकरण करनेका प्रयास किया है। किन्तु मालूम होता है उन्होंने श्रुतावतारके तुम्वुलूराचार्यविषयक उक्त श्लोकोंके सिवा उनसे ऊपरके श्लोक नहीं देखे; क्योंकि उन्होंने अपने लेखमें जो उक्त श्लोक उद्धृत किये हैं वे 'कर्नाटककविचरिते. परसे किये हैं। यदि वे पूरा श्रुतावतार देख जाते तो 'चूड़ामणिव्याख्याम् । का अर्थ चूड़ामणिकी व्याख्या न करते; क्योंकि श्रुतावतारमें सिद्धान्तग्रन्थोंके व्याख्यानोंका वर्णन किया है, तत्त्वार्थ महाशास्त्रके व्याख्यानोंका नहीं। अतः उनका उक्त प्रयास निष्फल ही साबित होता है। (१) “न चैषा भाषा शास्त्रानुपयोगिनी, तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य षण्णवतिसहस्रप्रमितग्रन्थसन्दर्भरूपस्य चूडामण्यभिधानस्य महाशास्त्रस्य ।” (२) षट्खण्डा० पु. १, प्रस्ता० पृ० ४९ । (३) जैनशिला० १० १०३ । (४) समन्तभद्र पृ० १९०। (५) shre Vardhadev and Tumblura-carya. Jain antiquary Vol. IV. No. IV. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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