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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत कारने चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करनेके लिये उच्चारणाचार्य रचित उच्चारणाके सिवा अन्य उच्चारणाका भी उपयोग किया है। उच्चारणाचार्य रचित वृत्तिका नाम उच्चारणावृत्ति है। इस वृत्तिको यह नाम सम्भवतः इसी लिये दिया गया था क्योंकि इसके कर्ताका नाम उच्चारणाचार्य था। किन्तु कर्ताका उच्चारणाचार्य नाम असली मालूम नहीं होता। धवलामें सूत्राचार्य, निक्षेपाचार्य, व्याख्यानाचार्य आदि आचार्योंका उल्लेख आता है। ये सब यौगिक संज्ञाएँ या पदवियाँ प्रतीत होती हैं जो सूत्रोंके अध्यापन आदिसे सम्बन्ध रखती थीं। उच्चारणाचार्य भी कोई इसी प्रकारका पद प्रतीत होता है जो सम्भवतः सूत्रग्रन्थोंके उच्चारणकर्ताओंको दिया जाता था। उच्चारणावृत्तिके रचयिताको भी सम्भवतः यह पद प्राप्त था और वे उसी पदसे रूढ़ हो गये थे। इसीलिये उनकी वृत्ति उच्चारणावृत्ति कहलाई, या उन्होंने ही उसका नाम अपने नाम पर उच्चारणावृत्ति रखा। किन्तु अन्य प्राचार्योकी वृत्तियोंकी भी उच्चारणा संज्ञा देखकर मन कुछ भ्रममें पड़ जाता है। सम्भव है उच्चारणाचार्य रचित उच्चारणा वृत्तिके पश्चात् आगमिक परम्परामें उच्चारणा शब्द अमुक प्रकारकी वृत्तिके अर्थमें रूढ़ हो गया हो और इस लिये उच्चारणा वृत्तिकी शैली पर रची गई वृत्तियोंको उच्चारणा कहा जाने लगा हो। यदि ये वृत्तियां प्रकाशमें आयें तो इस सम्बन्धमें विशेष प्रकाश पड़ सकता है। इन्द्रनन्दिने गाथासूत्र, चूर्णिसूत्र और उच्चारणासूत्रोंमें कषायप्राभृतका उपसंहार हो चुकनेके पश्चात् उनपर जिस प्रथम टीकाका उल्लेख किया है वह शामकुण्डाचार्यरचित पद्धति थी। जयधवलाकारके अनुसार जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रके शामकुण्डा- अशेष अर्थों का संग्रह किया गया हो ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं। वृन्तिसूत्रों के चार्यकी विवरणको टीका कहते हैं और वृत्तिसूत्रोंके विषम पदोंका जिसमें भंजन-विश्लेषण पद्धति किया गया हो उसे पंजिका कहते हैं। और सूत्र तथा उसकी वृत्तिके विवरणको पद्धति कहते हैं । पद्धतिके इस लक्षणसे ऐसा प्रतीत होता है कि शामकुण्डाचार्यकी पद्धतिरूप टीका गाथासूत्र और चूर्णिसूत्रोंपर रची गई थी। जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिके निम्न श्लोकके द्वारा कषायप्राभृतविषयक साहित्यका विभाग इस प्रकार किया गया है "गाथासूत्राणि सूत्राणि चूर्णिसूत्रं तु वार्तिकम् । टीका श्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धतिपक्षिकाः ॥२६॥" अर्थात्-सूत्र तो गाथा सूत्र हैं। चूर्णिसूत्र वार्तिक-वृत्तिरूप हैं। टीका श्री वीरसेनरचित है। और शेष या तो पद्धतिरूप हैं या पञ्जिकारूप हैं। इसके द्वारा जयधवलाकारने गाथासूत्र, और वीरसेन रचित जयधवला टीकाके सिवा शेष विवरण ग्रन्थोंको पद्धति या पंजिका बतलाया है। यहां बहुवचनान्त 'शेषाः' शब्दसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कषायप्राभृतपर अन्य भी अनेक विवरण ग्रन्थ थे जिन्हें जयधवलाकार पद्धति या पञ्जिका कहते हैं। उन्हींमें शामकुण्डाचार्य रचित पद्धति भी हो सकती है। किन्तु उसका कोई उल्लेख जयधवलामें दृष्टिगोचर नहीं हो सका। (१) षट्खण्डा० पु. १ की प्रस्ता० पृ० ५। (२) "सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्याए वित्तिसुत्तववएसादो । 'वित्तिसुत्तविवरणाए टीकाववएसादो। 'वित्तिसुत्तविसमपयभंजियाए पंजियाववएसाटो । 'सुत्तवित्तिविवरणाए पढईववएसादो।" प्रे० का० पृ० ३९० । ... . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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