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________________ प्रस्तावना स्थितिविभक्ति नामक अधिकारमें जघन्य क्षेत्रानुगमका वर्णन करते हुए जयधवलाकारने एक स्थानपर लिखा है कि यहाँ मूलुच्चारणाके अभिप्रायसे ऐसा समझना चाहिए। यहाँ मूलुचारणासे ___अभिप्राय उच्चारणाचार्य निर्मित वृत्तिसे है या अन्य किसी उच्चारणासे है, यह अभी मूलुच्चारणा निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता। परन्तु उच्चारणाके पहले मूल विशेषण लगानेसे ___ यह भी संभव हो सकता है कि उच्चारणाचार्यनिर्मित वृत्तिके लिये ही मूलुच्चारणा शब्दका प्रयोग किया हो, क्योंकि इन्द्रनन्दिके लेखके अनुसार कषायप्राभृत पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना हो जानेके बाद उच्चारणाचार्यने ही उच्चारणासूत्रोंकी रचना की थी और इसलिये वही मूलआद्य उच्चारणा कही जा सकती है। किन्तु उस उच्चारणाका उल्लेख जयधवलामें एक सौसे भी अधिक बार होने पर भी जयधवलाकारने उसे कहीं भी मूलुच्चारणा नहीं कहा। उच्चारणा, उच्चारणागंथ, उच्चारणाइरियवयण या उच्चारणाइरियपरूविदवक्खाण शब्दसे ही यत्र तत्र उसका उल्लेख मिलता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मूलुच्चारणा कोई. दूसरी उच्चारणा थी, और यदि उसका मूल विशेषण उसे आद्य उच्चारणा बतलानेके लिये लगाया गया हो तो कहना होगा कि उच्चारणाचार्यकी वृत्तिसे पहले भी कोई उच्चारणा मौजूद थी। किन्तु यह सब संभावना ही है, अन्य भी प्रमाण प्रकाशमें आने पर ही इसका निर्णय हो सकता है। . स्थितिविभक्ति अधिकारमें ही कालानुगमका वर्णन करते हुए एक स्थानमें जयधवलाकारने बप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणाका उल्लेख किया है। संभवतः यह वह वृत्ति है जिसका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें किया है । परन्तु उन्होंने उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति वप्पदेवाचार्य बतलाया है और व्याख्याप्रज्ञप्तिका उल्लेख धवलामें आता है। यदि धवलामें लिखित उल्लिखित व्याख्याप्रज्ञप्तिके कर्ता वप्पदेवाचार्य ही हों तो कहना होगा कि उन्होंने उच्चारणा षटखण्डागमपर जो टीका रची थी उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति था और कषायप्राभृत ___ पर जो टीका रची थी उसका नाम उच्चारणा था; क्योंकि व्याख्याप्रज्ञप्तिका उल्लेख धवलामें आता है और उनकी उच्चारणाका उल्लेख जयधवलामें आता है। ऊपर जयधवलामें वप्पदेवाचार्यरचित उच्चारणाके जिस उल्लेखका निर्देश किया है उस उल्लेखके साथ ही जयधवलाकारने 'अम्हेहि लिहिदुच्चारण' का भी निर्देश किया है जिसका अर्थ 'हमारे द्वारा लिखी हुई उच्चारणा' होता है। यहाँ जयधवलाकारने चूर्णिसूत्र और स्वामी वीरसेन वप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणासे अपनी उच्चारणामें मतभेद बतलाया है। इस लिखित निर्देशसे तो यही प्रतीत होता है कि स्वामी वीरसेनने कषायप्राभृतपर उच्चारणा उच्चारणा वृत्तिकी भी रचना की थी। स्थितिविभक्ति अधिकारमें ही उत्कृष्ट कालानुगम तथा अन्तरानुगमके अन्तमें जयधवला. कारने लिखा है कि यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षक सूत्रोंका प्ररूपण करके अब उनसे सूचित ___अर्थका प्ररूपण करनेके लिए लिखित उच्चारणाका अनुवर्तन करते हैं। यहाँ लिखित उच्चारणाके साथ लिखित विशेषण लगानेसे जयधवलाकारका क्या अभिप्राय था उञ्चारणा यह स्पष्ट नहीं हो सका। यदि यह उच्चारणा भी वही उच्चारणा है जिसके अनुवर्तन का उल्लेख जयधवलामें जगह जगह पाया जाता है तो जयधवलाकारने यहीं उसके साथ लिखित विशेषण क्यों लगाया ? यदि यह दूसरी उच्चारणा है तो संभव है लिखितके पहले उसके लिखने वालेका नाम प्रतियोंमें छूट गया हो। यदि ऐसा हो तो कहना होगा कि जयधवला (१) "एत्थ मूलुच्चारणाहिप्पारण. . . . . . . .।" प्रे० का० पृ० १२८१ । (२) "चुण्णिसुत्तम्मि बप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अंतोमुत्तमिदि भणियो। अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जह० एगसमओ पक्क संखेज्जा समया० परूवियो।" जयध. प्रे. का. पृ. १३०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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