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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत टीका लिखी और कषायप्राभृत पर भी टीका लिखी। इस टीकाका प्रमाण ६० हजार था और यह प्राकृत भाषामें थी। तथा छठे खण्डपर पांच हजार आठ श्लोकप्रमाण व्याख्या लिखी। __उसके बाद कितना ही काल बीतनेपर चित्रकूटपुरके निवासी एलाचार्य सिद्धान्तोंके ज्ञाता हुए । उनके पासमें सकल सिद्धान्तका अध्ययन करके श्री वीरसेन स्वामीने वाटग्राममें थानतेन्दुके द्वारा बनवाये हुए चैत्यालयमें ठहर कर व्याख्याप्रज्ञप्ति नामकी टीकाको पाकर षट्खण्डागमपर ७२ हजार प्रमाण धवला टीकाकी रचना की। तथा कषाय प्राभृतकी चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी। उसके बाद वीरसेन स्वामीका स्वर्गवास हो गया। तब उनके शिष्य जिनसेन स्वामीने शेष कषायप्राभृत पर चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी । इस प्रकार कषायप्राभृतकी टीका जयधवलाका प्रमाण ६० हजार हुश्रा। ये दोनों टीकाएं प्राकृत और संस्कृतसे मिश्रित भाषामें रची गई थीं। . श्रुतावतारके इस वर्णनसे प्रकट होता है कि कषायप्राभृतपर सबसे पहले आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। उसके बाद उच्चारणाचार्यने उन पर उच्चारणावृत्तिकी रचना की। ये चूर्णिसूत्र और उच्चारणावृत्ति मूल कषायप्राभृतके इतने अविभाज्य अंग बन गये कि इन तीनोंकी ही संज्ञा कषायप्राभृत पड़ गई और कषायप्राभृतका उपसंहार इन तीनोंमें ही हुआ कहा जाने लगा। उसके बाद शामकुण्डाचार्यने पद्धतिरूप टीकाकी रचना की। तुम्बलूर आचायने चूडामणि नामकी व्याख्या रची। बप्पदेवगुरुने व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक टीकाकी रचना की। आचार्य वीरसेन तथा उनके शिष्य आचार्य जिनसेनने जयधवला टीकाकी रचना की। आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्रने कषायप्राभृतपर कोई टीका नहीं रची। आचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्र तो प्रस्तुत ग्रन्थमें ही मौजूद हैं। जयधवलाकारने उन्हें यतिवृषभके लेकर ही अपनी जयधवला टीकाका निर्माण किया है। मूल गाथाएं और चूणिसूत्रोंकी चूर्णिसूत्र टीकाका नाम ही जयधवला है। इन चूर्णिसूत्रोंके विषयमें आगे विशेष प्रकाश डाला जायगा। उच्चारणाचार्यकी इस उच्चारणावृत्तिका भी उल्लेख जयधवलामें बहुतायतसे पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति बहुत विस्तृत थी। चूर्णिसूत्रकारने जिन विषयों का निर्दश मात्र किया था या जिन्हें छोड़ दिया था, उनका भी स्पष्ट और विस्तृत वर्णन इस उच्चारणावृत्ति वृत्तिमें था। जयधवलाकारने ऐसे विषयोंका वर्णन करने में, खास करके अनुयोगद्वारके व्याख्यानमें उच्चारणाका खूब उपयोग किया है और उपयोग करनेके कारणोंका भी स्पष्ट निर्देश कर दिया है। मालूम होता है यह वृत्ति उनके सामने मौजूद थी। आज भी यदि यह दक्षिणके किसी भण्डारमें अपने जीवनके शेष दिन बिता रही हो तो अचरज नहीं। (१) कषायप्राभूत और षट्खण्डागम शीर्षकमें पहले कषायोंके अन्तर कालको लेकर जिस मतभेदका उल्लेख किया है वह मतभेद जयधवलामें ही पाया जाता है । क्योंकि उसीमें कषायोंका उत्कृष्ट अन्तर एक वर्षसे अधिक बतलाया है और इसका निर्देश सम्भवतः उच्चारणावृत्तिके आधारपर किया गया है क्योंकि अनुयोगद्वारोंके वर्णनमें जयधवलाकारने उच्चारणाका ही बहुतायतसे उपयोग किया है । और उसका षट्खण्डागमकी टीकामें 'पाहुडसुत्त' करके उल्लेख किया है।' (२) "गाथाचू[च्चारणसूत्रैरुपसंहृतं कषायाख्य-। प्राभूतमेवं गुणधरयतिवृषभोच्चारणाचार्यैः ॥१५९॥" श्रुताव० । (३) "एवं जइवसहाइरियेण सूचिस्स अत्थस्स उच्चारणाइरियेण परूविदवक्खाणं भणिस्सामो।" "एत्थ ताव मंदबुद्धिजणाणुग्गहट्ठमुच्चारणा वुच्चदे।" "एवं चुण्णिसुत्तत्थपरूवणं कारण संपहि उच्चारणाबुच्चदे।" ज.ध.प्रे. का. पृ. ११३४, १५०१, १९०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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