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________________ प्रस्तावना चरण 'विरदे मिस्से अविरदे य' है और कर्मप्रकृतिमें इसी गाथाका अन्तिम चरण 'णियमा दिहीकए दुविहे' है। कषायप्राभृतकी गाथा नम्बर ३४ का अन्तिम चरण 'छक्के पणए च बोद्धष्वा है और कर्मप्रकृति में इसी गाथाका अन्तिम चरण 'सत्तगे छक्क पणगे वा' है। इन दोनों प्राचीन ग्रन्थोंकी कुछ गाथाओंमें समानता देखकर एकदम किसी निर्णयपर पहुँचना तो संभव नहीं है। फिर भी यह समानता ध्यान देने योग्य तो है ही। वैसे तो अग्रायणीयपूर्वके पश्चम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभृतसे ही षटखण्डागमका भी उद्भव हुआ है और इस दृष्टिसे षट्खण्डागम और कर्मप्रकृतिमें सादृश्य पाया जाना संभव था, किन्तु पश्चमपूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तीसरे पेज्जदोषप्राभृतसे प्रादुर्भूत कषायप्राभृत और कर्मप्रकृतिका यह सादृश्य विचारणीय है। दोनोंके सादृश्यपर विचार करते समय यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि कषायप्राभृतमें केवल मोहनीयकर्मको लेकर ही वर्णन किया है अतः उसके संक्रम अनुयोगद्वारमें केवल मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंके ही संक्रमका वर्णन किया है। कर्मप्रकृतिमें भी संक्रमकरणका वर्णन है किन्तु उसका वही अंश कसायपाहुडसे मेल खाता है जो मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंके संक्रमणसे सम्बन्ध रखता है। तथा उपशमना प्रकरणमें भी यही बात है। किन्तु इतनी विशेषता है कि दर्शनमोहोपशमनाकी ही कुछ गाथाएँ परस्परमें समान हैं, चारित्रमोहोपशमना की नहीं। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि गुणधर आचार्यने कषायप्राभृतकी रचना करके नागहस्ती और आर्यमंक्षु आचार्यको उनका व्याख्यान किया। उनके पासमें कषायप्रा भृतको पढ़कर यतिवृषभ आचार्यने उसपर छह हजार प्रमाण चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। कषाय प्राभृत यतिवृषभ आचार्यसे उन चूर्णिसूत्रोंका अध्ययन करके उच्चारणाचार्यने उनपर बारह की हजार प्रमाण उच्चारणासूत्रोंकी रचना की। इस प्रकार गुणधराचार्येके गाथासूत्र, यतिटीकाएँ वृषभ श्राचार्य के चूर्णिसूत्र और उच्चारणाचार्यके उच्चारणासूत्रोंके द्वारा कषायप्राभृत उपसंहृत किया गया। षटखण्डागम और कषायप्राभृत ये दोनों ही सिद्धान्त ग्रन्थ गुरुपरिपाटीसे कुण्डकुन्द नगरमें श्री पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुए। उन्होंने षट्खण्डोंमेंसे आदिके तीन खण्डोंपर बारह हजार प्रमाण परिकर्म नामका ग्रन्थ रचा। उसके बाद कितना ही काल बीतनेपर शामकुण्ड आचार्यने दोनों श्रागमोंको पूरी तरहसे जानकर महाबन्ध नामके छठे खण्डके सिवा शेष दोनों ग्रन्थों पर बारहीं हजार प्रमाण प्राकृत संस्कृत और कर्णाटक भाषासे मिश्रित पद्धतिरूप ग्रन्थकी रचना की। उसके बाद कितना ही काल बीतनेपर तुम्बलूर ग्राममें तुम्बलूर नामके प्राचार्य हुए। उन्होंने भी षष्ठ खण्डके सिवा शेष पांच खण्डोंपर तथा कषायप्राभृतपर कर्णाटक भाषामें ८४ हजार प्रमाणचूड़ामणि नामकी महती व्याख्या रची। उसके बाद स्वामी समन्तभद्र हुए। उन्होंने भी षट खण्डागमके प्रथम पांच खण्डों पर अति सुन्दर संस्कृत भाषामें ४८ हजार प्रमाण टीकाकी रचना की। जब वे दूसरे सिद्धान्त ग्रुन्थ पर व्याख्या लिखनेको तैयार हुए तो उनके एक सधर्माने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। ___ इस प्रकार दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंका व्याख्यानक्रम गुरुपरम्परासे आता हुआ शुभनन्दि और रविनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ। भीमरथी और कृष्णमेख नदियोंके बीचके प्रदेशमें सुन्दर उत्कलिका ग्रामके समीपमें स्थित प्रसिद्ध मगणवल्ली ग्राममें उन दोनों मुनियोंके पास समस्त सिद्धान्तका अध्ययन करके वप्पदेवने आदि सिद्धान्तके पांच खण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नामकी (१) तत्वानुशा० पृ० ८७-८९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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