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जयधवलासहित कषायप्राभृत किन्हीं मन्तव्योंके सम्बन्धमें मतभेद है। उदाहरणके लिये चूर्णिसूत्र में दोषका उत्कृष्ट और जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। उस पर जयधवलामें शङ्का की गई कि जीवस्थानमें एक समय काल बतलाया है सो उसका और इसका विरोध क्यों नहीं है ? तो उसका समाधान करते हुए जयधवलाकारने दोनोंके विरोधको स्वीकार किया है, और कहा है कि वह उपदेश अन्य प्राचार्यका है। तथा धवलामें मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंके क्षपणका विधान करते हुए धवलाकारने लिखा है कि यह उपदेश 'संतकम्मपाहुड' का है। कषायपाहुडके उपदेशानुसार तो पहले आठ कषायोंका क्षपण करके पीछे सोलह प्रकृतियोंका क्षपण करता है । इस अन्तिम मतभेदका उल्लेख श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपने गोमट्टसार कर्मकाण्डमें 'केई। करके किया है । एक दूसरे स्थानपर चारों कषायोंका अन्तर छ मास बतलाया है और लिखा है कि इसमें पाहुडसुत्तसे व्यभिचार नहीं आता है क्योंकि उसका उपदेश भिन्न है। यहां पाहुडसुत्तसे आशय कषायप्राभृतका ही प्रतीत होता है क्योंकि उसके व्याख्यानमें उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष बतलाया है । यहां कषायप्राभृतके उपदेशको षट्खण्डागमसे भिन्न बतलानेसे धवलाकारका आशय ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ग्रन्थोंके रचयिताओंको प्राप्त उपदेशोंमें भेद था । यदि ऐसा न होता तो दोनोंके मन्तव्योंमें भेद नहीं हो सकता था।
हम ऊपर लिख आये हैं कि कषायप्राभृत ग्रन्थ २३३ गाथाओं में निबद्ध है। इन गाथाओंमें कषायप्राभृत से सम्माइट्टी सद्दहदि' और 'मिच्छाइटोणियमा' आदि दो गाथाएं, जो कि दर्शनमोहो
और पशमना नामक दसवें अधिकारमें आती हैं, ऐसी हैं जो थाड़ेसे शब्दभेद या पाठव्यतिकर्म प्रकृति क्रमके साथ गोमट्टसार जीवकाण्डमें और अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में पाई जाती हैं।
__ श्वेताम्बर साहित्यमें कर्मप्रकृति नामका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई (गुजरात) से प्रकाशित हो चुका है। इसके कर्ताका नाम शिवशर्मसूरि बतलाया जाता है मगर उनके समय आदिके बारेमें अभी तक कुछ विशेष प्रकाश नहीं पड़ सका है। इन्हें पूर्वधर कहा जाता है और यह अनुमान किया जाता है कि आगमोद्धारक श्री देवद्धिगणी क्षमाश्रमणसे पहले हो गये हैं । कर्मप्रकृतिकी गाथासंख्या ४७५ है। पहली गाथामें ग्रन्थकारने आठ करणोंका तथा उदय और सत्त्वका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है और उपान्त्य गाथामें कहा है-मैंने अल्पबद्धि होते हुए भी जैसा सना वैसा कर्मप्रकृतिप्राभतसे इस ग्रन्थ किया। दृष्टिवादके ज्ञाता पुरुष स्खलितांशोंको सुधारकर उसका कथन करें।' टीकाकार श्री मलयगिरिने लिखा है कि अग्रायणीय पूर्वके पञ्चम वस्तुके अन्तगत कर्मप्रकृति नामके चौथे प्राभृतसे यह प्रकरण रचा गया है। इस कर्मप्रकृतिके संक्रमकरण नामक अधिकारमें कषायप्राभृतके बन्धक महाधिकारके अन्तर्गत संक्रम अनुयोग द्वारकी १३ गाथाएं अनुक्रमसे पाई जाती है। कषायप्राभृतमें उनका क्रमिक नम्बर २७ से ३६ तक आता है और कर्मप्रकृतिमें ११२ से १२४ तक
आता है । तथा कर्मप्रकृतिके सर्वोपशमना नामक प्रकरणमें भी कषायप्राभृतके दर्शनमोहोपशमना नामक अधिकारकी चार गाथाएं पाई जाती हैं। कषायप्राभृतमें उनका क्रमिक नम्बर १००, १०३, १०४ और १०५ है और कर्मप्रकृतिमें ३३५ से ३३८ तक है। दोनों ग्रन्थों में उक्त गाथाओंके कुछ पदों और शब्दोंमें व्यतिक्रम तथा अन्तर भी पाया जाता है। कहीं कहीं वह अन्तर सैद्धान्तिक भेदको भी लिये हुए प्रतीत होता है । जैसे, कषायप्राभृतकी गाथा नम्बर ३२ का अन्तिम
(१) ५० ३८५-३८६ । (२) षट्खण्डा० पु० १, पृ० २१७ । (३) गा० १२८ । (४) गा. ३९१ । (५) षट्खण्डा०, पु० ५, १० ११२ । (६) 'इय कम्मप्पगडीओ जहा सुयं नीयमप्पमइणावि । सोहियणाभोगकयं कहंतु वरदिट्ठिवायन्नू ॥४७४॥' (७) ये नम्बर रतलाम संस्थासे प्रकाशित मूल कर्मप्रकृतिके आधारसे दिये गये हैं।
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