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________________ प्रस्तावना गाथाएं तो सचमुच ही सूत्रात्मक हैं; क्योंकि उनका व्याख्यान करनेके लिये स्वयं प्रन्थकारको उनकी भाष्यगाथाएं बनानेकी आवश्यकता प्रतीत हुई। ये भाष्यगाथाएं भी कुल २३३ गाथाओं में ही सम्मिलित हैं। इससे स्पष्ट है कि सूत्रात्मक गाथाओंकी रचना करके भी ग्रन्थकार उन विषयोंको स्पष्ट करने में बराबर प्रयत्नशील थे जिनका स्पष्ट करना वे आवश्यक समझते थे। और ऐसा क्यों न होता, जब कि वे प्रवचनवात्सल्यके वश होकर प्रवचनको रक्षा और लोक कल्याणकी शुभ भावनासे ग्रन्थका प्रणयन करनेमें तत्पर हुए थे। उनकी रचना शैलीका और भी अधिक सौष्ठव जानने के लिये उनकी गाथाओंके विभाग क्रमपर दृष्टि देनेकी आवश्यकता है। हम ऊपर लिख आये हैं कि कषायप्राभृतकी कुल गाथासंख्या २३३ है। इन २३३ गाथाओं में से पहली गाथामें ग्रन्थका नाम और जिस पूर्वके जिस अवान्तर अधिकारसे ग्रन्थकी रचना की गई है उसका नाम आदि बतलाया है। दूसरी गाथामें गाथाओं और अधिकारोंकी संख्याका निर्देश करके जितनी गाथाएं जिस अधिकारमें आई हैं उनका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। चौथी, पांचवी, और छठी गाथामें बतलाया है कि प्रारम्भके पांच अधिकारोंमें तीन गाथाएं हैं। वेदक नामके छठे अधिकारमें चार गाथाएं हैं। उपयोग नामके सातवें अधिकारमें सात गाथाएं हैं। चतुःस्थान नामके आठवें अधिकारमें सोलह गाथाएं हैं। व्यञ्जन नामके नौवें अधिकारमें पांच गाथाएं हैं। दर्शनमोहोपशामना नामके दसवें अधिकारमें पन्द्रह गाथाएं हैं। दर्शनमोहक्षपणा नामके ग्यारहवें अधिकारमें पाँच गाथाएं हैं। संयमासंयमलब्धि नामके बारहवें और चारित्रलब्धि नामके तेरहवें अधिकारमें एक गाथा है। और चारित्रमोहोपशामना नामके चौदहवें अधिकारमें आठ गाथाएं हैं। सातवीं और आठवीं गाथामें चारित्रमोहापणा नामके पन्द्रहवें अधिकारके अवान्तर अधिकारोंमें गाथासंख्याका निर्देश करते हुए अट्ठाईस गाथाएं बतलाई हैं । नौंवीं और दसवीं गाथामें बतलाया है कि चारित्रमोहक्षपणा अधिकार सम्बन्धी अट्ठाईस गाथाओंमें कितनी सूत्रगाथाएं हैं और कितनी असूत्रगाथाएं हैं । ग्यारहवीं और बारहवीं गाथामें जिस जिस सूत्रगाथाकी जितनी भाष्यगाथाएं हैं. उनका निर्देश किया है । तेरहवीं और चौदहवीं गाथामें कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारोंका नामनिर्देश किया है। प्रारम्भकी इन गाथाओंके पर्यवेक्षणसे पता चलता है कि आजसे लगभग दो हजार वर्ष पहले जब अंगज्ञान एकदम लुप्त नहीं हुआ था किन्तु लुप्त होनेके अभिमुख था और ग्रन्थरचनाका अधिक प्रचार नहीं था, उस समय भी कसायपाहुडके कर्ताने अपने ग्रन्थके अधिकारोंका और उसकी गाथासूचीका निर्देश प्रारम्भकी गाथाओंमें कर दिया है। इससे पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि ग्रन्थकारकी रचनाशैली गूढ होते हुए भी कितनी क्रमिक और संगत है। हम ऊपर लिख आये हैं कि षटखण्डागमकी रचना दूसरे पूर्वसे की गई है और कषायप्राभृतकी रचना पंचम पूर्वसे की गई है । षट्खण्डागममें विविध अनुयोगद्वारोंसे आठों कर्मों के बन्ध बन्धक आदिका विस्तारसे वर्णन किया है और कषायप्राभृतमें केवल मोहकषायप्राभृत नीयकर्मका ही मुख्यतासे वर्णन है। षटखण्डागमकी रचना प्रायः गद्य सूत्रोंमें की और षट्- गई है जब कि कषायप्राभृत गाथासूत्रोंमें ही रचा गया है। दोनोंके सूत्रोंका तुलखण्डागम नात्मक दृष्टिसे अध्ययन करने पर दोनोंकी परम्परा, मतैक्य या मतभेद आदि बातों पर बहत कल प्रकाश पड सकता है। यद्यपि अभी ऐसा प्रयत्न नहीं किया गया तथापि धवला और जयधवलाके कुछ उल्लेखोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ग्रन्थों में किन्हीं ____Jain-Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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