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________________ गा० १३ ] त्थाहियारणिसो १७७ गाहा पहुडि जाव 'पच्छिम आवलियाए समऊणाए ०' एस गाहेत्ति ताव दस भासगाहाओ १० | 'किटीदो किटिं पुण संकमह०' एदिस्से चउत्थीए मूलगाहाए दो भासगाहाओ । ताओ कदमाओ ? 'किट्टीदो किट्टी (हिं ) पुण०' एस गाहा पहुडि जाव 'मयूणा य पविद्या आवलिया ० ' एस गाहेत्ति ताव दो भासगाहाओ २ । ' चत्तारि य खवणाए' त्ति गयं । दोहि गाहाहि बुत्तासेसभासगाहीकाणमेसा संदिट्ठी बालजणपडिबोहण वेदव्वा ५ । ३-२-६ । ४ । ३ । ३ । १ । ४ । ३ । २ । ५-१-६ । ३ । ४ । २ । ४ । ४ । २ । ५ । १ । १ । १० । २ । एदासिं सव्वभासगाहाणं समासो छासीदी ८६ । एदासु गाहा पुव्विल्लअट्ठावीस गाहाओ पक्खित्ते चारित्त मोहणीय क्खवणाए णिबद्धचोइसुत्तरसयगाहाओ होंति ११४ । एत्थ पुव्विल्लचउसद्विगाहाओ पक्खित्ते अट्ठहत्तरिसय ओ गाहाओ होंति । ताणं द्वावणा १७८ । S १४४. संपहि कसाय पाहुडस्स पण्णारसअत्थाहियार परूवणहं गुणहर भडारओ दो मुत्तगाहाओ पठदि (१) पेज - दोसविहत्ती हिदि- अणुभागे च बंधगे चेय । वेदग-उवजोगे विय चउट्ठाण - वियंजणे चेय ॥ १३ ॥ गाथाएं हैं । 'किट्टीदो कट्टि पुण संकामइ० ' कृष्टियोंकी क्षपणासंबन्धी इस चौथी मूल गाथाकी दो भाष्यगाथाएं हैं। वे कौनसी हैं ? 'किट्टीदो किट्टि पुण०' इस गाथासे लेकर 'समयूणा य पविट्ठा आवलिया ०' इस गाथा तक दो भाष्यगाथाएँ हैं । इसप्रकार 'चत्तारि य खवणाए' इस गाथांशका व्याख्यान समाप्त हुआ । उपर्युक्त दो गाथाओंके द्वारा कही गई समस्त भाष्यगाथाओं की संख्या की यह संदृष्टि बालजनोंको समझानेके लिये इसप्रकार स्थापित करनी चाहिये - ५, ३, २, ६, ४, ३, ३, १, ४, ३, २, ५, १, ६, ३, ४, २, ४, ४, २, ५, १, १, १०, २ । इन समस्त भाष्यगाथाओं का जोड़ छियासी होता है । इन छियासी गाथाओं में चारित्रमोहकी क्षपणासंबन्धी पूर्वोक्त अट्ठाईस गाथाओंके मिला देने पर चारित्रमोहकी क्षपणा नामक अर्थाधिकारसे संबन्ध रखनेवाली कुल गाथाएं एकसौ चौदह होती हैं । इन एकसौ चौदह गाथाओं में पहले के १४ अधिकारसंबन्धी चौसठ गाथाओंके मिला देने पर कुल एकसौ अठहत्तर गाथाएं होती हैं। गिनतीमें उनकी स्थापना १७८ होती है । ★ $ १४४. अब कषायप्राभृतके पन्द्रह अर्थाधिकारोंका प्ररूपण करनेके लिये गुणधर भट्टारक दो सूत्रगाथाएं कहते हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोहके विषय में पेज्ज- दोषविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनु(१) सूत्रगाथाङ्कः २२८ । (२) सूत्रगाथाङ्कः २२९ । (३) सूत्रगाथाङ्क: २३० । ( ४ ) सूत्रगाथाङ्कः २३१ । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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