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________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ (२) सम्मत्त-देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दसण-चरित्तमोहे, अद्धापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥ ६१४५. एदम्मि अस्थाहियारे एत्तियाओ एत्तियाओ गाहाओ संबद्धाओ ति परूवणाए चेव अवगयाणं पण्णरसण्हमत्थाहियाराणं पुणो दोहि गाहाहि परूवणा किमहं कीरदे ? ण; एदासिं दोण्हं सुत्तगाहाणमभावे तासिं संबंधगाहाणं एदासिं चेव वित्तिभावेण डिदाणं पवुत्तिविरोहादो । एदासि दोण्हं गाहाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा, तत्थ पढमगाहाए पढमद्धे जहा पंच अत्थाहियारा होति तहा पुव्वं चेव परूविदं ति णेह परूविज्जदे । उदयमुदीरणं च घेत्तणं वेदगो त्ति एक्को चेव अत्थाहियारो कओ। तं कथं णव्वदे ? 'चत्तारि वेदगम्मि दु' इदि वयणादो। 'सम्मत्त' इत्ति एत्थ दंसणमोहणीभागविभक्ति, अकर्मबन्धकी अपेक्षा बन्धक, कर्मबन्धकी अपेक्षा बन्धक, वेदक, उपयोग, चतुःस्थान, व्यञ्जन, दर्शनमोहकी उपशामना, दर्शनमोहकी क्षपणा, देशविरति, संयम, चारित्रमोहकी उपशामना और चारित्रमोहकी क्षपणा ये पन्द्रह अर्थाधिकार होते हैं। तथा इन सभी अधिकारोंमें अद्धापरिमाणका निर्देश करना चाहिये ॥१३-१४॥ ____ १४५. शंका-इस इस अर्थाधिकारसे इतनी इतनी गाथाएँ संबन्ध रखती हैं, इसप्रकार प्ररूपण करनेसे ही पन्द्रह अर्थाधिकारोंका ज्ञान हो जाता है फिर इन दो गाथाओंके द्वारा उनकी प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधान-नहीं, क्योंकि इन दोनों सूत्रगाथाओंके अभावमें इन्हीं दोनों गाथाओंकी वृत्तिरूपसे स्थित उन संबन्धगाथाओंकी प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है अर्थात् पहले जो गाथा कह आये हैं जिनमें अमुक अमुक अधिकारसे सम्बन्ध रखनेवाली गाथाओंका निर्देश किया है, वे गाथाएँ इन्हीं दोनों गाथाओंकी वृत्तिगाथाएँ हैं, अतः इनके बिना उनका कथन बन नहीं सकता है । इसलिये इन दो गाथाओंके द्वारा पन्द्रह अधिकारोंका निर्देश किया है। ___ अब इन दोनों गाथाओंका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-पन्द्रह अधिकारोंमेंसे पहली गाथाके पूर्वार्धमें जिसप्रकार पांच अर्थाधिकार होते हैं उसप्रकार उनका पहले ही प्ररूपण कर आये हैं, इसलिये यहां उनका प्ररूपण नहीं करते हैं। उदय और उदीरणा इन दोनोंको ग्रहण करके वेदक नामका एक ही अर्थाधिकार किया है। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि उदय और उदीरणाको ग्रहण करके वेदक नामका एक अर्थाधिकार किया गया है ? ___ समाधान-'चत्तारि वेदगम्मि दु' इस वचनसे जाना जाता है कि उदय और उदीरणा इन दोनोंको मिला कर वेदक नामका एक अधिकार बनाया गया है। (१)-तूण वे-स० । (२) गाथांकः ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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