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________________ १५० जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ चूलिया चेदि । परियम्मे पंच अत्थाहियारा - चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती दीवसाय पण्णत्ती वियाहपण्णत्ती चेदि । सुत्ते अहासीदि अत्थाहियारा । ण तेसिं णामाणि जाणिज्जंति, संपहि विसिद्ध्रुव एसाभावादो । पढमाणिओए चउवीस अत्थाहियारा; तित्थयरपुरासु सव्वपुराणाणमंतब्भावादो। चूलियाए पंच अत्थाहियारा - जलगया थलगया मायागया रूवगया आयासगया चेदि । पुव्वगयस्स चोद्दस अत्थाहियारा- उपायपुव्वं अग्गेणियं विरियाणुपवादो अस्थिणत्थिपवादो णाणपवादो सच्चपवादो आदपवादो कम्मपवादो पच्चक्खाणपवादो विज्जाणुपवादो कल्लाणपवादो पाणावायपवादो किरियाविसालो लोकबिंदुसारो चेदि । $ ११६. उपाय पुव्वस्स दस अग्गेणियस्स चोदस विरियाणुपवादस्स अह अस्थिणत्थिपवादस्स अट्ठारस णाणपवादस्स बारस सच्चपवादस्स बारस आदपवादस्स सोलस कम्मपवादस्स बीसं पच्चक्खाणपवादस्स तीसं विज्जाणुपवादस्स पण्णारस कल्लाणपवादस्स दस पाणावायपवादस्स दस किरियाविसालस्स दस लोगबिंदुसारस्स सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । परिकर्म में पांच अर्थाधिकार हैं- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, और व्याख्याप्रज्ञप्ति । सूत्रमें अठासी अर्थाधिकार हैं, परंतु उन अर्थाधिकारोंके नाम अवगत नहीं हैं, क्योंकि वर्तमान में उनके विषय में विशिष्ट उपदेश नहीं पाया जाता है । प्रथमानुयोगमें चौबीस अर्थाधिकार हैं, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों के पुराणों में सभी पुराणोंका अन्तर्भाव हो जाता है । चूलिकामें पांच अर्थाधिकार हैं - जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता । पूर्वगतके चौदह अर्थाधिकार हैं- उत्पाद पूर्व, अग्रायणी पूर्व, वीर्यानुप्रवाद पूर्व, अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, ज्ञानप्रवाद पूर्व, सत्यप्रवाद पूर्व, आत्मप्रवाद पूर्व, कर्मप्रवाद पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व, विद्यानुप्रवाद पूर्व, कल्याणप्रवाद पूर्व, प्राणावायप्रवाद पूर्व, क्रियाविशाल पूर्व और लोकबिन्दुसार पूर्व । $११६. उत्पादपूर्वके दस, अप्रायणीके चौदह, वीर्यानुप्रवाद के आठ, अस्तिनास्तिप्रवाद के अठारह, ज्ञानप्रवाद के बारह, सत्यप्रवाद के बारह, आत्मप्रवादके सोलह, कर्मप्रवाद के बीस, प्रत्याख्यानप्रवाद के तीस, विद्यानुप्रवाद के पन्द्रह, कल्याणप्रवाद के दस, प्राणावायप्रवादके दस, क्रियाविशालके दस और लोकबिन्दुसार के दस अर्थाधिकार हैं । इन अर्थाधिकारों में से (१) नन्दीसूत्रादिषु श्वे० आगमग्रन्थेषु सूत्रस्य इमानि अष्टाशीतिनामान्युपलभ्यन्ते - "सुत्ताइं बावीसं पन्नत्ताई । तं जहा उज्जुसुयं परिणयापरिणयं बहुभंगिअं विजयचरियं अनंतरं परंपरं मासाणं संजूह संभिण्ण आहव्वायं सोवत्थिअवत्तं नंदाबत्तं बहुलं पुट्ठापुट्ठ विआवत्तं एवंभूअं दुयावत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूढं सव्वओभद्दं पस्सासं दुप्पडिग्गहं इच्चेइआई बाबीसं सुत्ताई छिन्नच्छेअनइयाणि ससमय सुत्तपरिवाडीए इच्चे आई बाबीसं सुत्ताइं अच्छिन्नच्छेअनइयाणि आजीविअसुत्तपरिवाडीए इच्चेअआई बाबीसं सुत्ताईं तिगणइयाणि तेरासिअसुत्तपरिवाडीए इच्चे आई बाबीसं सुत्ताइं चक्डकनइआणि ससमयसुत्त परिवाडीए एवमेव सपुव्वावरेण अट्ठासीई सुत्ताइं भवतीति ।" - नन्दी० सू० ५६ । सम० सू० १४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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