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________________ गा०] अत्थाहियारणिदेसो १४६ * अत्याहियारो पण्णारसविहो । ११३. एदं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूचिदत्थो बुच्चदे । तं जहा-णाणस्स पंच अत्थाहियारा-मइणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि । सुदणाणे दुवे अत्थाहियारा-अणंगपविमंगपविठं चेदि । अणंगपविठ्ठस्स चोदस अत्थाहियारासामाइयं चउवीसत्थओ वंदणा पडिकमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालिया उत्तरज्झयणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसीहियं चेदि । ६११४. अंगपविढे बारह अत्थाहियारा-आयारो मूदयदं ठाणं समवाओ विवाहपण्णत्ती णाहधम्मकहा उवासयज्भेणं अंतयडदसा अणुत्तरोववादियदसा पण्हवायरणं विवायसुत्तं दिहिवादो चेदि । ११५. दिट्टिवादे पंच अत्थाहियारा-परियम्मं सुत्तं पढमाणिओगो पुव्वगयं विशेषार्थ-स्वसमय, परसमय और तदुभयके भेदसे वक्तव्यता तीन प्रकारकी है, इसका पहले कथन कर ही आये हैं। जिसमें केवल जैन मान्यताओंका वर्णन किया गया हो उसका वक्तव्य स्वसमय है। जिसमें जैनबाह्य मान्यताओंका कथन किया गया हो उसका वक्तव्य परसमय है। और जिसमें परसमयका विचार करते हुए स्वसमयकी स्थापना की गई हो उसका वक्तव्य तदुभय है। इस नियमके अनुसार आचार आदि ग्यारह अंग और सामायिक आदि चौदह अंगबाह्य स्वसमयवक्तव्यरूप ही हैं; क्योंकि इनमें परसमयका विचार न करते हुए केवल स्वसमयकी ही स्थापना की गई है। तथा दृष्टिवाद अंग तदुभयरूप है क्योंकि एक तो इसमें परसमयका विचार करते हुए स्वसमयकी स्थापना की गई है दूसरे, आयुर्वेद, गणित, कामशास्त्र, आदि अन्य विषयोंका भी कथन किया गया है। * अर्थाधिकार पन्द्रह प्रकारका है। ६११३. यह सूत्र देशामर्षक है, इसलिये इस सूत्रसे सूचित होनेवाले अर्थका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-ज्ञानके पांच अधिकार हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । श्रुतज्ञानके दो अर्थाधिकार हैं-अनंगप्रविष्ट और अंगप्रविष्ट। अनंगप्रविष्ट श्रुतके चौदह अर्थाधिकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुंडरीक, महापुंडरीक और निषिद्धिका । 8 ११४. अंगप्रविष्टमें बारह अर्थाधिकार हैं-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नाथधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, और दृष्टिवाद । ११५. दृष्टिवाद नामके बारहवें अंगप्रविष्ट श्रुतमें पांच अर्थाधिकार हैं-परिकर्म, (१) वियाह-आ०। (२)-यज्झयणं आ०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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