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________________ १४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती १११. पाणावायपवादो दसविहपाणाणं हाणि-वड्ढीओ वण्णेदि । होदु आउअपाणस्स हाणी आहारणिरोहादिसमुब्भूदकयलीघादेण, ण पुण वड्ढी; अहिणवहिदिबंधवड्ढीए विणा उक्कड्ढणाए हिदिसंतवड्ढीए अभावादो। ण एस दोसो; अट्ठहि आगरिसाहि आउअंबंधमाणजीवाणमाउअपाणस्स वढिदसणादो । करि-तुरय-णरायि १११. प्राणवायप्रवाद नामका पूर्व पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोवास इन दस प्राणोंकी हानि और वृद्धिका वर्णन करता है। शंका-आहारनिरोध आदि कारणोंसे उत्पन्न हुए कदलीघातमरणके निमित्तसे आयुप्राणकी हानि हो जाओ, परन्तु आयुप्राणकी वृद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि, नवीन स्थितिबन्धकी वृद्धि हुए विना उत्कर्षणाके द्वारा केवल सत्तामें स्थित कर्मोंकी स्थितिकी वृद्धि नहीं हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आठ अपकर्षों के द्वारा आयुकर्मका बन्ध करनेवाले जीवोंके आयुप्राणकी वृद्धि देखी जाती है। विशेषार्थ-उत्कर्षणके समय सत्तामें स्थित पहलेके कर्मनिषेकोंका बँधनेवाले तज्जातीय कर्मनिषकोंमें ही उत्कर्षण होता है। उत्कर्षणके इस सामान्य नियमके अनुसार ज्ञानावरणादिक अन्य कर्मोंमें तो उत्कर्षण बन जाता है पर एक कालमें एक ही आयुका बन्ध होनेसे उसमें उत्कर्षण कैसे बन सकता है ? जब प्राणी एक आयुका उपभोग करता है तब उस भुज्यमान आयुकी सत्ता रहते हुए यद्यपि दूसरी आयुका बन्ध होता है पर समानजातीय या असमानजातीय दो गतिसंबन्धी दो आयुओंका परस्पर संक्रमण न होनेसे भुज्यमान आयुका बध्यमान आयुमें उत्कर्षण नहीं हो सकता है। इसलिये जिसप्रकार भुज्यमान आयुमें बाह्यनिमित्तसे अपकर्षण और उदीरणा हो सकती है उसप्रकार उत्कर्षण नहीं बन सकता है । अतः आयुकर्ममें उत्कर्षणकरण नहीं कहना चाहिये । यह शंकाकारकी शंकाका अभिप्राय है । इसका जो समाधान किया गया है वह इसप्रकार है कि यद्यपि भुज्यमान आयुका उत्कर्षण नहीं होता यह ठीक है फिर भी विवक्षित एक भवसंबन्धी आयुका अनेक कालोंमें बन्ध संभव है, जिन्हें अपकर्षकाल कहते हैं। अतः उन अनेक अपकर्षकालोंमें बंधनेवाली एक आयुका उत्कर्षण बन जाता है। जैसे, किसी एक जीवने पहले अपकर्ष कालमें आयुका बन्ध किया उसके जब दूसरे अपकर्षकालमें भी आयुका बन्ध हो और उसी समय पहले अपकर्प कालमें बाँधी हुई आयुके विवक्षित निषेकोंका उत्कर्षण हो तो आयुकर्ममें उत्कर्षण करण के होनेमें कोई बाधा नहीं आती है। इसीप्रकार अन्य अपकर्षकालोंकी अपेक्षा भी उत्कर्षणकी (१) "कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेदः भूतिकर्मजाङगुलिप्रक्रम: प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तारेण वर्णितः तत्प्राणावायम्।"-राजवा० २२० । ध० आ० ५० ५५० । ध० सं० पृ० १२२ । हरि० १०।११६ -११७। गो० जीव० जी० गा० ३६६ । अंगप० (पूर्व०) गा० १०७-१०९। “वारसमं पाणाऊं, तत्थ आयुप्राणं सविहाणं सव्वं सतिपदं अण्णे य प्राणा वर्णिताः।"-नन्दी० ००, हरि०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ० सू० १४७ । (२)-अस्स पा-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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