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________________ गा ० १ ] कल्लाणपवादपुव्वसरूवणिरूवणं १४५ $ ११०. कल्लाणपवादो गह-णक्खत्त - चंद-सूरचारविसेस अहंगमहाणिमित्तं तित्थयेर-चक्कवट्टि-बल-णारायणादीणं कल्लाणाणि च वण्णेदि । $ ११०. कल्याणप्रवाद नामका पूर्व, ग्रह नक्षत्र चन्द्र और सूर्यके चारक्षेत्रका, अष्टांग महानिमित्तका तथा तीर्थंकर चक्रवर्ती बलदेव और नारायण आदिके कल्याणकोंका वर्णन करता है । विशेषार्थ - - चारका अर्थ गमन है । जिस क्षेत्रमें सूर्यादि गमन करते हैं उसे चारक्षेत्र कहते हैं । सूर्य और चन्द्रको छोड़ कर शेष नक्षत्र आदि मेरुपर्वतसे चारों ओर ग्यारह सौ इक्कीस योजन छोड़ कर शेष जम्बूद्वीप और लवण समुद्र में मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए परिभ्रमण करते हैं । सूर्य और चन्द्रका चारक्षेत्र पाँचसौ दस सही अड़तालीस बटे इकसठ ५१०३८ योजन है । इसमें से एकसौ अस्सी योजन जम्बूद्वीप में और शेष लवणसमुद्रमें है । इसप्रकार यह जम्बूद्वीपसंबन्धी ज्योतिषी विमानोंका चारक्षेत्र समझना चाहिये । शेष के दो समुद्र और डेढ़ द्वीप में भी इसीप्रकार चारक्षेत्र कहा है । ढाईद्वीप के आगे ज्योतिषी विमान स्थित हैं, इसलिये आगे चारक्षेत्र नहीं पाया जाता है । अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न ये अष्टांग महानिमित्त हैं । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारोंके उदय अस्त आदिसे अतीत और अनागत कार्योंका ज्ञान करना अन्तरिक्ष नामका महानिमित्त है । पृथिवीकी स्निग्धता, रूक्षता, और सघनता आदिको जानकर उससे वृद्धि, हानि, जय, पराजय तथा पृथिवीके भीतर रखे हुए स्वर्णादिका ज्ञान करना भौम नामका महानिमित्त है । शरीर के अंग और प्रत्यंगोंके देखनेसे त्रिकालभावी सुख दुःखका ज्ञान करलेना अंग नामका महानिमित्त है । अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अच्छे और बुरे शब्दों के सुननेसे अच्छे बुरे फलोंका ज्ञान कर लेना स्वर नामका महानिमित्त है । मस्तक, मुख, गला आदि में तिल, मसा आदिको देखकर त्रिकालविषयक अच्छे बुरेका ज्ञान कर लेना व्यंजन नामका महानिमित्त है। शरीरमें स्थित श्रीवत्स, स्वस्तिक, कलश आदि लक्षण चिन्हों को देखकर उससे ऐश्वर्य आदिका ज्ञान कर लेना लक्षण नामका महानिमित्त है । वस्त्र, शस्त्र आदि में चूहे आदिके द्वारा किये गये छिद्र आदिको देखकर शुभाशुभका ज्ञान कर लेना छिन्न नामका महानिमित्त है । नीरोग पुरुषके द्वारा रात्रि के पश्चिम भागमें देखे गये स्वप्नोंके निमित्तसे सुख दुःखका ज्ञान कर लेना स्वप्न नामका महानिमित्त है । इत्यादि समस्त वर्णन कल्याणप्रवाद पूर्व में है । (१) "रविशशिग्रहनक्षत्रतारागणानां चारोपपादगतिविपर्ययफलानि शकुनिव्याहृतम् अर्हद्बलदेववासुदेवचक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च यत्रोक्तानि तत्कल्याणनामधेयम् ।" - राजवा० १२० । ध० आ० प० ५५० । ध० सं० पृ० १२१ । हरि० १०।११५ । गो० जीव० जी० गा० ३३६ । अंगप० ( पूर्व ० ) गा० १०४ - १०६ । “एगादसमं अवंति, वंकं णाम णिष्फलं, ण बंभं अवंभं सफलेत्यर्थः । सब्वे . णाणतवसंजमजोगा सफला वणिज्जंति अप्पसत्था य पमादादिया सव्वे असुभफला वण्णिता अतो अवभं ।" - नन्दी० चू०, हरि०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ० सू० १४७ । ( २ ) - यरं च - अ० आ० । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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