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________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ मपरिमियं च पञ्चक्खाणं वण्णेदि । विज्जाणुपवादो अंगुठपसेणादिसत्तसयमंते रोहिाणआदि-पंचसयमहाविज्जाओ च तार्सि साहणविहाणं सिद्धाणं फलं च वण्णेदि । प्रत्याख्यान यह शब्द नामप्रत्याख्यान कहलाता है। जो पापबन्धकी कारण हो और मिथ्यात्व आदिके बढ़ानेवाली हो, ऐसी अपरमार्थरूप देवता आदि की स्थापना और पापके कारणभूत द्रव्यके आकारोंकी रचना न करना चाहिये, न कराना चाहिये । तथा यदि कोई करता हो तो सम्मति नहीं देनी चाहिये। यह सब स्थापनाप्रत्याख्यान है। अथवा प्रत्याख्यानरूपसे परिणत हुए जीवकी तदाकार और अतदाकाररूप स्थापना करना स्थापना प्रत्याख्यान है। पापबन्धका कारणभूत जो द्रव्य सावध हो अथवा निरवद्य होते हुए भी जिसका तपके लिये त्याग किया हो उसे न तो स्वयं ग्रहण करे, न दूसरेको ग्रहण करनेके लिये प्रेरणा करे, तथा यदि कोई ग्रहण करता हो तो उसे सम्मति न दे। यह सब द्रव्यप्रत्याख्यान है। अथवा आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यप्रत्याख्यान अनेक प्रकारका समझना चाहिये । असंयमके कारणभूत क्षेत्रका त्याग करना क्षेत्रप्रत्याख्यान कहलाता है। अथवा प्रत्याख्यानको धारण करनेवाले व्रतीने जिस क्षेत्रका सेवन किया हो उस क्षेत्रमें प्रवेश करना क्षेत्रप्रत्याख्यान है। असंयम आदिके कारणभूत कालका त्याग करना कालप्रत्याख्यान कहलाता है । अथवा प्रत्याख्यानसे परिणत हुए जीवके द्वारा सेवित काल कालप्रत्याख्यान कहलाता है। मिथ्यात्व, असंयम और कषाय आदिका त्याग करना भावप्रत्याख्यान कहलाता है । अथवा, आगम और नोआगमके भेदसे भावप्रत्याख्यान अनेक प्रकारका समझना चाहिये । जो जीव संयमी है उसे प्रत्याख्यापक समझना चाहिये। अशुभ नामादिकके त्यागरूप परिणाम प्रत्याख्यान समझना चाहिये और सचित्तादि द्रव्य प्रत्याख्यातव्य समझना चाहिये । इत्यादिरूपसे नियतकाल और अनियतकालरूप प्रत्याख्यानका वर्णन प्रत्याख्यानप्रवाद नामके पूर्व में किया गया है। विद्यानुप्रवाद नामका पूर्व अंगुष्ठप्रसेना आदि सातसौ मंत्र अर्थात् अल्पविद्याओंका और रोहिणी आदि पाँचसौ महाविद्याओंका तथा उन विद्याओंके साधन करनेकी विधिका और सिद्ध हुई उन विद्याओंके फलका वर्णन करता है। (१) “समस्ता विद्या अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधिः क्षेत्रं श्रेणी लोकप्रतिष्ठा संस्थानं समुद्धातश्च यत्र कथ्यते तद्विद्यानुवादम् । तत्र अंगुष्ठप्रसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि रोहिण्यादीनां महाविद्यानां पंचशत्तानि अन्तरिक्ष-भौमाङ्ग-स्वर-स्वप्न-लक्षण-व्यञ्जन-छिन्नानि अष्टौ महानिमित्तानि तेषां विषयः लोकः क्षेत्रमाकाशम् ...."-राजवा० २२० । ध० आ० ५० ५५० । ध० सं० पृ० १२१ । हरि० १०१११३-११४। गो० जीव० जी० गा० ३६६। अंगप० (पूर्व) गा० १०१-१०३। “तत्थ य अणेगे विज्जाइसया वण्णिता"-नन्दी०, हरि० मलय०, सू० ५६ । सम० अभ० सू० १४७ । “णइमित्तिका य रिद्धी णभभौमंगसराइवेंजणयं । लक्खणचिण्हसऊणं अद्रवियप्पेहि विच्छरिदं॥"-ति०प० प०९३ । "अविहे महानिमित्ते-भोमे उप्पाते सुविणे अंतलिक्खे अंगे सरे लक्खणे वंजणे ।"-स्था० सू०६०८ । (२)-सयमेत्ते रो-ता० ।-सयमत्तेरो-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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