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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती पडिक्कमणभावन्भुवगमादो । किं णिबंधणो एत्थ उवयारो ? पञ्चक्खाणसामण्णणिबंधणो। किमहो उत्तमहाणाणिए पच्चक्खाणे पडिक्कमणोवयारो ? ससरीरो आहारो सकसाओ पंचमहव्वयगहणकाले चेव परिचत्तो; अण्णहा सुद्धणयविसईकयमहव्वयग्गहणाणुववत्तीदो, सो सेविओ च मए एत्तियं कालं पंचमहव्वयभंग काऊण सत्तिवियलदाए इदि अप्पाणं गरहिय उत्तमट्ठाणकाले पडिक्कमणवुत्तिजाणावणहं तत्थ पडिक्कमणोवयारो कीरदे । एदेर्सि पडिक्कमणाणं लक्खणं विहाणं च वण्णेदि पडिक्कमणं । स्वीकार किया है। शंका-औत्तमस्थानिकमें प्रतिक्रमणपनेके उपचारका क्या निमित्त है ? समाधान-इसमें प्रत्याख्यानसामान्य ही प्रतिक्रमणपनेके उपचारका निमित्त है । शंका-उत्तमस्थानके निमित्तसे किये गये प्रत्याख्यानमें प्रतिक्रमणका उपचार किस प्रयोजनसे होता है ? समाधान-मैंने पाँच महाव्रतोंका ग्रहण करते समय ही शरीर और कषायके साथ आहारका त्याग कर दिया था अन्यथा शुद्ध नयके विषयभूत पाँच महाव्रतोंका ग्रहण नहीं बन सकता है। ऐसा होते हुए भी मैंने शक्तिहीन होनेके कारण पाँच महाव्रतोंका भंग करके इतने कालतक उस आहारका सेवन किया, इसप्रकार अपनी गर्दा करके उत्तमस्थानके कालमें प्रतिक्रमणकी प्रवृत्ति पाई जाती है, इसका ज्ञान करानेके लिये औत्तमस्थानिक प्रत्याख्यानमें प्रतिक्रमणका उपचार किया गया है। इसप्रकार प्रतिक्रमण प्रकीर्णक इन प्रतिक्रमणोंके लक्षण और भेदोंका वर्णन करता है। विशेषार्थ-ऊपर जो प्रतिक्रमणका लक्षण कह आये हैं कि स्वीकृत व्रतोंमें लगे हुए दोषोंका निन्दा और गर्दापूर्वक शोधन करना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रतिक्रमणका यह लक्षण औत्तमस्थानिक प्रतिक्रमणमें घटित नहीं होता है, क्योंकि औत्तमस्थानिक प्रतिक्रमण ब्रतोंमें लगे हुए दोषोंके शोधनके लिये नहीं किया जाता है किन्तु समाधिमरणका इच्छुक भव्य जीव समाधिमरणको जिस समय स्वीकार करता है उस समय वह शरीर और उसके संरक्षणके कारणभूत आहारका त्याग करता है, अतः उसकी यह क्रिया ही औत्तमस्थानिक प्रतिक्रमण कही जाती है। अब प्रश्न यह होता है कि व्रतग्रहणसे लेकर समाधिमरण स्वीकार करनेके काल तक जो आहारादिक स्वीकार किया गया है वह क्या समाधि के पहले स्वीकार किये गये व्रतोंमें दोषाधायक है ? यदि दोषाधायक है; तो समाधिके पहले ही इन दोषोंका प्रतिक्रमण क्यों नहीं किया जाता है ? और यदि दोषाधायक नहीं है; तो समाधिको स्वीकार करनेके समय इनके त्यागको प्रतिक्रमण क्यों कहा गया है ? इस शंका का ऊपर जो समाधान किया गया है वह बड़े ही महत्त्वका है। उस समाधानका यह अभिप्राय है कि निश्चयनयकी अपेक्षा पांच महाव्रतोंको स्वीकार करते समय ही शरीरका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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