SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ قام في गा० १] विणयसरूवणिरूवणं ___६०. विणओ पंचविहो-णाणविणओ दसणविणओ चरित्तविणओ तवविणओ उवयारियविणओ चेदि । गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिविनयः। एदेसि पंचण्हं विणयाणं लक्खैणं . और उसके संरक्षणके कारणभूत आहारादिकका त्याग हो जाता है, क्योंकि इस नयकी अपेक्षा आभ्यन्तर कषायोंके त्यागके समान बाह्य क्रिया और उसके साधनोंका पूरी तरहसे त्याग करना अहिंसा महाव्रतमें अपेक्षित है। केवलीके यथाख्यात चारित्रके विद्यमान रहते हुए भी वे पूर्ण चारित्रके धारी नहीं होते इसका कारण उनके योगका सद्भाव है। इससे निश्चित होता है कि अहिंसा महाव्रतमें सभी प्रकारकी हिंसारूप परिणति और उसके साधनोंका त्याग होना चाहिये। तभी उसे सकलव्रत कहा जा सकता है। पर यदि साधु इस प्रकार आहारादिकका प्रारम्भसे ही सर्वथा त्याग कर दे तो वह ध्यान और तपके अभावमें रत्नत्रयकी सिद्धि नहीं कर सकता है, क्योंकि रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिये ध्यान और तप आवश्यक हैं। तथा ध्यान और तपके कारणभूत शरीरको चिरकाल तक टिकाए रखनेके लिए आहारादिकका ग्रहण करना आवश्यक है। अतः पांच महाव्रतोंके स्वीकार कर लेने पर भी व्यवहारनयकी अपेक्षा यत्नाचार पूर्वककी गई प्रवृत्ति दोषकारक नहीं कही जा सकती है । जब तक साधु समाधिको नहीं स्वीकार करता है तब तक वह व्यवहारका आश्रय लेकर प्रवृत्ति करता रहता है, इसलिये समाधिमरणके स्वीकार करनेके पहले उसके आहारादिके स्वीकार करने पर भी उसका वह प्रतिक्रमण नहीं करता है, पर जब साधु समाधिको स्वीकार करता है तब वह विचार करता है कि वास्तवमें पांचों महावतोंको स्वीकार करते समय ही कषाय और शरीरके साथ आहारका त्याग हो जाता है फिर भी अभी तक मैं आहारादिको स्वीकार करता आया हूँ जो शुद्धदृष्टिसे पांच महाव्रतोंमें दोष उत्पन्न करता है, इसलिये मुझे स्वीकृत महाव्रतोंमें लगे हुए इन दोषोंका प्रतिकमण करना चाहिये । इस प्रकार औत्तमस्थानिक प्रत्याख्यानमें प्रतिक्रमणका उपचार करके उसे प्रतिक्रमण कहा है। ६१०. विनय पांच प्रकारका है-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तप विनय, और औपचारिकविनय । जो पुरुष गुणोंसे अधिक हैं उनमें नम्रवृत्तिका रखना विनय है। (१) “दसणणाणे विणओ चरित्ततवओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ ॥"-मूलाचा० ५।१६७ । भावप्रा० गा० १०२। मूलारा० गा० ११२ । “विणए सत्तविहे पण्णत्ते । तं जहा-णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए कायविणए, लोगावयारविणए।"औप० स०२०। "दंसणणाणचरित्ते तवे अ तह ओवयारिए चेव । एसो अ मोक्खविणओ पंचविहो होड नायव्वो ॥"-दश०नि० ३१४ । (२) "पूज्येष्वादरो विनयः"-सवार्थ० ९।२०। “जम्हा विणेदि कम्मं अट्ठविहं चाउरंगमोक्खो य । तम्हा वदंति विदुसो विणओ त्ति विलीणसंसारा ॥"-मूलाचा० ७८१। आव० नि० गा० १२२२। “विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः।"-मूलारा० विजयो० गा० १११ । "नीचैर्वृत्यनुत्सेकलक्षणो हि विनयः ॥"-आचा० शी० ॥१२११४। (३) एतेषां विनयानां लक्षणविधानफलादयः।"-मूलाचा० (५।१६८१९१) मूलारा० (गा० ११२-१३३) औप० (सू० २०) दशबै० (९ विनयसमाध्ययने) इत्यादिषु द्रष्टव्याः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy