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________________ गां ० १ ] पच्चक्खाणसरूवपरूवणं ११५ ९८६. पच्चक्खाणपडिक्कमणाणं को भेओ ? उच्चंदे, सगंगडियदोसाणं दव्व-खेतकालभावविसयाणं परिचाओ पच्चक्खाणं णाम । पच्चक्खाणादो अपच्चक्खाणं गंतूण पुणो पच्चक्खाणस्सागमणं पडिक्कमणं । जदि एवं तो उत्तमहाणियं ण पडिक्कमणं, तत्थ पडिक्कमण लक्खणाभावादो; ण; तत्थ वि पडिकमणमिव पडिकमणमिदि उवयारेण s - c. शंका - प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण में क्या भेद है ? समाधान- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके निमित्तसे अपने शरीर में लगे हुए दोषोंका त्याग करना प्रत्याख्यान है । तथा प्रत्याख्यानसे अप्रत्याख्यानको प्राप्त होकर पुनः प्रत्याख्यानको प्राप्त होना प्रतिक्रमण है । विशेषार्थ - मोक्षके इच्छुक व्रतीद्वारा रत्नत्रयके विरोधी नामादिकका, मन, वचन और कायपूर्वक त्याग करना प्रत्याख्यान कहलाता है । तथा त्याग करने के अनन्तर ग्रहण किये हुए व्रतोंमें लगे हुए, दोषोंका गर्हा और निन्दा पूर्वक परिमार्जन करना प्रतिक्रमण कहलाता है । यही इन दोनों में भेद है । प्रत्याख्यान अशुभ नामादिकके त्याग करनेरूप क्रिया है और प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान स्वीकार कर लेनेके अनन्तर व्रतमें लगे हुए दोषों का परिमार्जन है । इसी आशयको ध्यान में रखकर वीरसेन स्वामीने कहा है कि द्रव्यादिके विषयभूत अपने शरीर में स्थित दोषोंका त्याग करना प्रत्याख्यान है और प्रत्याख्यानके अनन्तर पुनः अप्रत्याख्यानको अर्थात् स्वीकृत व्रतोंमें अतिचारभावको प्राप्त होने पर उनका प्रत्याख्यान करना प्रतिक्रमण है । मूलाचारके टीकाकार वसुनन्दि श्रमणने षडावश्यक अधिकारकी १३५ वीं गाथाकी टीका में जो यह लिखा है कि 'अतीत कालविषयक अतिचारोंका शोधन करना प्रतिक्रमण है और त्रिकालविषयक अतिचारोंका त्याग करना प्रत्याख्यान है । अथवा व्रतादिकमें लगे हुए अतिचारोंका शोधन करना प्रतिक्रमण है और अतिचारोंके कारणभूत सचित्तादि द्रव्यों का त्याग करना तथा तपके लिये प्रासुकद्रव्यका भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।' इसका भी पूर्वोक्त ही अभिप्राय है । इस समस्त कथनका यह अभिप्राय है कि अहिंसादि व्रतों में जो दोष लगते हैं उनका शोधन करना प्रतिक्रमण है और जिन कारणोंसे वे दोष लगते है उनका सर्वदा के लिये त्याग कर देना प्रत्याख्यान है । शंका- यदि प्रतिक्रमणका उक्त लक्षण है तो औत्तमस्थानिक नामका प्रतिक्रमण नहीं हो सकता है, क्योंकि उसमें प्रतिक्रमणका लक्षण नहीं पाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि जो स्वयं प्रतिक्रमण न होकर प्रतिक्रमणके समान होता है वह भी प्रतिक्रमण कहलाता है । इसप्रकार के उपचारसे औत्तमस्थानिकमें भी प्रतिक्रमणपना (१) तुलना - " प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयोः को विशेष इति चेन्नैष दोषः; अतीतकालविषयातीचारशोधनं प्रतिक्रमणम्, अतीतभविष्यद्वर्त्तमानकालविषयातिचारनिर्हरणम् प्रत्याख्यानम् । अथवा, व्रताद्यतीचारशोधनं प्रतिक्रमणम्, अतीचारकारणसचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यविनिवृत्तिः तपोनिमित्तं प्रासुकद्रव्यस्य च निवृत्तिः प्रत्याख्यानम् ।" - मूलाचा० टी० ७१३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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