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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ ण तस्स मोक्खोजयिणत्तं वा; पक्खवायदूसियस्स णाण-चरणणिबंधणसम्मत्ताभावादो। तदो एगस्स णमंसणमणुववण्णं त्ति । ___ ८७. एत्थ परिहारो वुच्चदे। ण ताव पक्खवाओ अत्थि; एकं चेव जिणं जिणालयं वा वदामि ति णियमाभावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वंदणा ण कया चेवः अणंतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो। एवं संते ण च चउवीसत्थयम्मि वंदणाए अंतब्भावो होदि; दव्वट्टिय-पज्जवडियणयाणमेयत्तविरोहादो । ण च सव्वो पक्खवाओ असुहकम्मबंधहेऊ चेवेत्ति णियमो अत्थि; खीणमोहजिणविसयपक्खवायम्मि तदणुवलंभादो। एगजिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो ण सेसजिणवंदणा फलवंता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलंभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुवदनाद्वारा उत्पन्न हुए अशुभ कर्मोके बन्धनका कारण है । तथा एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेवालेको मोक्ष या जैनत्व नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह पक्षपात से दूषित है। इसलिये उसके ज्ञान और चारित्रमें कारण सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। अतएव एक जिन या जिनालयको नमस्कार करना नहीं बन सकता है ? ८७. समाधान-अब यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात तो होता नहीं है, क्योंकि वन्दना करनेवालेके 'मैं एक जिन या जिनालयकी ही वन्दना करूँगा अन्यकी नहीं ऐसा प्रतिज्ञारूप नियम नहीं पाया जाता है । तथा इससे वन्दना करनेवालेने शेष जिन और जिनालयोंकी नियमसे वन्दना नहीं की, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त सुख आदिके द्वारा अनन्त जिन एकत्वको प्राप्त हैं, अर्थात् अनन्तज्ञानादिगुण सभीमें समानरूपसे पाये जाते हैं इसलिये उनमें इन गुणोंकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है, अतएव एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे सभी जिन या जिनालयोंकी वन्दना हो जाती है। यद्यपि ऐसा है तो भी चतुर्विंशतिस्तवमें वन्दनाका अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयोंके एकत्व अर्थात् अभेद माननेमें विरोध आता है। तथा सभी पक्षपात अशुभ कर्मबन्धके हेतु हैं ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि जिनका मोह क्षीण हो गया है ऐसे जिन भगवानविषयक पक्षपातमें अशुभ कर्मोंके बन्धकी हेतुता नहीं पाई जाती है अर्थात् जिन भगवानका पक्ष स्वीकार करनेसे अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं होता है। यदि कोई ऐसा आग्रह करे कि एक जिनकी वन्दनाका जितना फल है शेष जिनोंकी वन्दनाका भी उतना ही फल होनेसे शेष जिनोंकी वन्दना करना सफल नहीं है । अतः शेष जिनोंकी वन्दनाओंमें अधिक फल नहीं पाया जानेके कारण एक जिनकी ही वन्दना करनी चाहिये। अथवा अनन्त जिनोंमें छद्मस्थके उपयोगकी एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, इसलिये भी एक जिनकी वन्दना करना चाहिये, सो इसप्रकारका यह एकान्त ग्रह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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