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________________ गा० १ ] वंदणासरूवणिरूवणं १११ रोमाणं खीरोअवेलातरंगजलधवलचउसहिसुवण्णदंडसुरहिचामरविराइयाणं सुहवण्णाणं सरूवाणुसरणपुरस्सरं तकित्तणं दव्वत्थओणाम । तेसिं जिणाणमणंतणोण-दसण-विरियसुहसम्मत्तव्वाबाह-विरायभावादिगुणाणुसरणपरूवणाओ भावत्थओं णाम । तेण चउवीसत्थयस्स वत्तव्वं ससमओ। ८६. एयस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंद) णाम । एक्कजिण-जिणालयवंदणा ण कम्मक्खयं कुणइ, सेसजिण-जिणालयच्चासणदुवारेणुप्पण्णअसुहकम्मबंधहेउत्तादो । हैं, जो क्षीरसागरके तटके तरंगयुक्त जलके समान शुभ्र, तथा सुवर्णदंडसे युक्त चौसठ सुरभिचामरोंसे सुशोभित हैं, तथा जिनका वर्ण (रंग) शुभ है, ऐसे चौबीसों तीर्थंकरों के शरीरोंके स्वरूपका अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है। उन चौबीस जिनोंके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्याबाध और विरागता आदि गुणोंके अनुसरण करनेकी प्ररूपणा करना भावस्तव है। इसलिये चतुर्विंशतिस्तवका कथन स्वसमय है। विशेषार्थ-तीर्थंकरोंकी उनके नामों द्वारा स्तुति करना नामस्तव कहलाता है। कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओंद्वारा तीर्थंकरोंकी स्तुति करना स्थापनास्तव कहलाता है । स्थापनारूप जिन जहाँ विराजमान रहते हैं उस स्थानको जिनभवन कहते हैं, अतः जिनभवनकी स्तुति स्थापनास्तवमें गर्भित हो जाती है। द्रव्यस्तवमें तीर्थङ्करोंके शरीरकी स्तुति की जाती है। और जिनत्वके कारणभूत अनन्त ज्ञानादिगुणोंकी स्तुति करना भावस्तव कहलाता है। इसप्रकार स्वसमयका कथन करनेवाला होनेसे चतुर्विंशतिस्तव स्वसमयवक्तव्य है। ८६. एक तीर्थकरको नमस्कार करना वन्दना है। शंका-एक जिन और एक जिनालयकी वन्दना कर्मोंका क्षय नहीं कर सकती है, क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयोंकी आसादना होती है, और इसलिये वह आसा (१) "वपुर्लक्ष्मगुणोच्छायजनकादिमुखेन या। लोकोत्तमानां संकीर्तिश्चित्रो द्रव्यस्तवोऽस्ति सः ॥" -अनगार० ८।४१ । “दव्वत्थओ पुप्फाई।"-आ० नि० गा० १९३ (भा०) (२) “सम्मत्तणाणदसणवीरिय सुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलघुमव्वाबाहं अट्ठ गुणा होति सिद्धाणं॥"-धम्मरसा० गा० १९२। (३) "संतगुणकित्तणा भावे।"-आ० नि० गा० १९३ । “चतुर्विशतिसंख्यानां तीर्थकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा चविंशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचविंशतिस्तवः ।" -मूलारा० विजयो० गा० १०६ । “वर्ण्यन्तेऽनन्यसामान्या यत्कैवल्यादयो गुणाः। भावकैर्भावसर्वस्वदिशां भावस्तवोऽस्तु सः॥"-अनगार०८४४। (४) "णामं ठवणा दवे खेत्ते काले य होदि भावे य। एसो खल वंदणगे णिक्खेवो छव्विहो भणिदो।"-मुलाचा० ७।७६-७७। "तस्मात्परं एकतीर्थकरालंबना चैत्यचैत्यालयादिस्तुतिः वंदना, तत्प्रतिपादकं शास्त्रं वा वंदना इत्युच्यते।"-गो० जीव० जी० गा०३६७ । अंगप० (चलि.) गा० १६ । “वंदणा एगजिणजिणालयविसयवंदणाए णिरवज्जभावं वण्णेइ।"-ध० सं० पृ० ९७ । “वर्णको वन्दना वन्द्यवन्दना द्विविधादिना।"-हरि० १०११३०। "वन्दना नतिनुत्याशीर्जयवादादिलक्षणा । भावशुद्धया यस्य तस्य पूज्यस्य विनयक्रिया॥"-अनगार० ८.४६ । “अरहंतसिद्धपडिमा तवसुदगुणगुरूण रादीणं । किदियम्गेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो॥"-मला० २२५ । मलारा० विजयो गा० १०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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