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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ १ पेज्जदोसविहत्ती ९८५. णामादिथयाणमत्थो एत्थुल्लो (ल्ला ) वेण बुच्चदे - गुणाणुसरणदुवारेण चउवीसहं पतित्राणं णामह सहस्सग्गहणं णांमत्थओ । कट्टिमाकट्टिमजिणपरिमाणं सब्भावासभाववणाए विदाणं बुद्धीए तित्थयरेहि एयत्तं गयाणं तित्थयराणंतासे सगुणभरियाणं वित्तणं वा वणाथवो णाम । जिणभवणत्थओ जिणडवणात्थए अंतब्भूदो त्ति ह पुध परूविदो | चउवीसहं पि तित्थयरसरीराणं विस- सत्यग्गि- पित्त-वाद-भजणिदासेसवेयणुम्मुक्काणं महामंडलतेएण दससु वि दिसासु बारहजोय णेहिंतो ओसारिदंधयाराणं सत्थि-अंकुसादिचउसद्दिलक्खणावण्णाणं सुहसंठाणसंघडणाणं सुरहिगंधेणामोहयतिहुवगाणं रत्तणयण- कदक्खसरमोक्ख- सेय-रय-वियारादिवज्जियाणं पमार्णेत्ति (ट्ठि) यणहश्रावक आरंभादिका त्याग करनेमें असमर्थ हैं तो भी उन्हें यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिये । इसीप्रकार मुनियोंके बाह्य वस्तुमें जो राग और द्वेषरूप प्रवृत्ति पाई जाती है उसके त्यागके लिये ही मुनियोंको अनशन आदिका उपदेश दिया जाता है । उसका उद्देश्य दूसरे जीवों का बध नहीं है, अतः तीर्थंकर जिन श्रावकधर्म और मुनिधर्मका उपदेश देते हुए भी सावद्य नहीं कहे जा सकते हैं और इसीलिये वे विबुध जनोंसे वंदनीय हैं यह सिद्ध होता है । चतुर्विंशतिस्तव में इसप्रकार शंका समाधान करते हुए चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतिका कथन किया गया है, अतः चतुर्विंशतिस्तव स्वसमयवक्तव्य है । ११० ८५. नामादि स्तवोंका अर्थ यहाँ पर वचनक्रमके द्वारा कहते हैं - चौबीसों तीर्थंकरोंके गुणों के अनुसरण द्वारा उनके एक हजार आठ नामोंका ग्रहण करना अर्थात् पाठ करना नामस्तव है । जो सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना में स्थापित हैं, और बुद्धिके द्वारा तीर्थं - करोंसे एकत्व अर्थात् अभेदको प्राप्त हैं, अतएव तीर्थंकरोंके समस्त अनन्त गुणोंको धारण करती हैं, ऐसी कृत्रिम और अकृत्रिम जिन प्रतिमाओंके स्वरूपका अनुसरण करना अथवा उनका कीर्तन करना स्थापनास्तव है । जिनभवनका स्तवन जिनस्थापनास्तव अर्थात् मूर्ति में स्थापित जिन भगवान के स्तवन में अन्तर्भूत है, इसलिये उसका यहाँ पृथक् प्ररूपण नहीं किया है। जो विष, शस्त्र, अग्नि, पित्त, वात और कफसे उत्पन्न होनेवाली अशेष वेदनाओंसे रहित हैं, जिन्होंने अपने मंडलाकार महान् तेजसे दशों दिशाओंमें बारह योजन तक अन्धकारको दूर कर दिया है, जो स्वस्तिक अंकुश आदि चोंसठ लक्षणचिन्होंसे व्याप्त हैं, जिनका शुभ संस्थान अर्थात् समचतुरस्र संस्थान और शुभसंहनन अर्थात् वज्रवृषभनाराच संहनन है, सुरभिगंधसे जिन्होंने त्रिभुवनको आमोदित कर दिया है, जो रक्तनयन, कटाक्षरूप बाणोंका छोड़ना, स्वेद, रज और विकार आदिसे रहित हैं, जिनके नख और रोम योग्य प्रमाणमें स्थित (१) "अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नामन्वर्थमर्हताम् । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नामस्तवो मतः ॥" - अनगार० ८।३९ । ( २ ) " कृत्रिमाकृत्रिमा वर्णप्रमाणायतनादिभिः । व्यावर्ण्यन्ते जिनेन्द्रार्चा यदसौ स्थापनास्तवः ॥ " - अनगार० ८ ४० । (३) -णाउण्णा - स० । ( ४ ) - णतिय स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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