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________________ १०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? जदि सुद्धस्स वि बंधो होहिदि बाहिरयवत्थुजोएण । णत्थि हु अहिंसओ णाम कोइ वाआदिवहहेॐ ॥५६॥ पावागमदाराइं अणाइरूवट्ठियाइ जीवम्मि । तत्थ सुहासवदारं उग्घादेंते कउ सदोसो ॥५७॥ सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावयविरये अणंतकम्मंसे । दसणमोहक्खवर कसायउवसामए य उवसंते ॥५॥ खवये य खीणमोहे जिणे य णियमा हवे असंखेजा। तविवरीओ कालो संखेज्जगुणाए सेढीए ॥५६॥ संयमी जनोंकी धर्मकथा भी उपासकोंके स्वदारसंतोष और त्रसवधविरतिकी शिक्षारूप होती है, अतः उसका यह अभिप्राय नहीं कि स्थावरघातकी अनुमति दी गई है। तात्पर्य यह है कि संयमरूप किसी भी उपदेशसे निवृत्ति ही इष्ट रहती है, उससे फलित होनेवाली प्रवृत्ति इष्ट नहीं ॥५५॥" “यदि बाह्य वस्तुके संयोगसे शुद्ध जीवके भी कर्मोंका बन्ध होने लगे तो कोई भी जीव अहिंसक नहीं हो सकता है, क्योंकि श्वास आदिके द्वारा सभीसे वायुकायिक आदि जीवोंका बध होता है ॥५६॥” ___“जीवमें पापास्रवके द्वार अनादि कालसे स्थित हैं उनके रहते हुए जो जीव शुभास्रवके द्वारका उद्घाटन करता है, अर्थात् शुभास्रवके कारणभूत कामोंको करता है वह सदोष कैसे हो सकता है ? ॥५७॥" "तीनों करणोंके अन्तिम समयमें वर्तमान विशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके जो गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होने पर असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रति समयमें होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे देशविरतके गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे सकलसंयमीके गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे अनन्तानुबन्धी कर्मकी विसंयोजना करनेवालेके गुणश्रेणिनिजराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके गुणश्रेणीनिर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती उपशमक (१) "अभाणि च-... 'होदि वायादिबधहेदु ।"-मूलारा० विजयो० गा०८०६ । (२) उद्धृते इमे गाथे-ध० आ० ५० ६३४, ७४९, १०६५। “सव्वत्थोवो दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेढिगुणो ११७ । संजदासजदस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो । ११८ । अधापवत्तसंजदस्स गुणसेटिगुणो असंखेज्जगुणो । ११९ । अणंताणुबंधिविसंजोएंतस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो। १२० । सणमोहक्खवगस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो । १२१ । कसायउवसामगस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो । १२२ । उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसे ढिगुणो असंखेज्जगुणो। १२३ । कसायखवगस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो। १२४ । खीणकसायवीदरागछदुमत्थस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो। १२५ । अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसेढिगुणो असंखेज्जगुणो । १२६ । जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसे ढिगुणो असंखेज्जगुणो।। १२७ । तब्धिवरीदो कालो संखेज्जगणो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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