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________________ गा०१] चउवीसत्थवपरूवणं १०५ वत्थु पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं ति भणइ ववहारो । ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण ॥५१॥ पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्धओ व उवजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहि ॥५२॥ णवकोडिकम्मसुद्धो परदो पच्छा य संपदियकाले । परसुहदुःखणिमित्तं जयि बंधइ णत्थि णिव्वाणं ॥५३॥ तित्थयरस्स विहारो लोअसुहो णेव तत्थ पुण्णफलो । वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेइ ॥५४॥ संजदधम्मकहा वि य उवासयाणं सदारसंतोसो । तसवहविरईसिक्खा थावरघादो ति णाणुमदो ॥५५॥ "यद्यपि वस्तुकी अपेक्षा करके अध्यवसान अर्थात् आत्मपरिणाम होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है परन्तु केवल वस्तुके निमित्तसे बन्ध नहीं होता है, बन्ध तो आत्मपरिणामोंके संबन्धसे होता है ॥५१॥" “अनुकंपा, शुद्ध योग और शुद्ध उपयोग ये पुण्यावस्वरूप या पुण्यास्रवके कारण हैं। तथा इनसे विपरीत अर्थात् अदया, अशुभ योग और अशुभ उपयोग ये पापास्रवके कारण हैं। इसप्रकार आस्रवके हेतु समझना चाहिये ॥५२॥" ___"जो पुरुष कर्मकी नों कोटि अर्थात् मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदनासे शुद्ध है, उसे भूत, भविष्यत और वर्तमान कालमें यदि दूसरेके सुख और दुःखके निमित्तसे बन्ध होने लगे तो किसीको भी निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकेगा ॥५३॥" "तीर्थंकरका विहार संसारके लिये सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकरको पुण्यरूप फल प्राप्त होता है ऐसा नहीं है। तथा दान और पूजा आदि आरंभके करनेवाले वचन, उन्हें कर्मबन्धसे लिप्त नहीं करते हैं । अर्थात् वे दान पूजा आदि आरम्भोंका जो उपदेश देते हैं उससे भी उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता है ॥५४॥" । “संयतोंके धर्मकी अर्थात् संयमधर्मकी जो कथा है उससे श्रावकोंके स्वदारसंतोषकी और त्रसवधविरतिकी शिक्षासे स्थावरघातकी अनुमति नहीं दी गई है। अथवा संयमी जनोंकी धर्मकथा, गृहस्थोंका स्वदारसंतोष और त्रसवधसे विरत होनेका उपदेश जो आगममें दिया गया है उसका यह अभिप्राय नहीं है कि स्थावरघातकी अनुमति दी गई है । अथवा (१) ". . . 'सुद्ध एव उवजोगो। विवरीदं पावस्स दु. शुद्धोपयोगश्च शुद्धमनोवाक्कायक्रिया इत्यर्थः शुद्धज्ञानदर्शनोपयोगश्च आभ्यामनुकम्पाशुद्धोपयोगाभ्याम् ।"-मूलाचा० टी० ५।३८ । “अणुकंपासुद्धवओगो वि य पुण्णस्स आसवदुवारं । तं विवरीदं आसवदारं पावस्स कम्मस्स = सुद्धवओगो शुद्धश्च प्रयोगःपरिणामः . ." -मूलारा०, विजयो०, गा० १८३४ । (२) तुलना-"विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थस्तवार्हतः ॥"-आप्तमी० का० ९५ । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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