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________________ १०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? ण हि तग्यादणिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । मुच्छा परिग्गहो त्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो ॥४७॥ णं य हिंसामेत्तेण य सावजेणावि हिंसओ होइ । सुद्धस्स य संपत्ती अफला उत्ता जिणवरेहिं ॥४८॥ णाणी कम्मस्स क्खयत्थमुट्ठिदो णोत्थिदो य हिंसाए । जदइ असढं अहिंसन्थमप्पमत्तो अबहओ सो॥४६॥ सकं परिहरियव्वं असक्कणिज्जम्मि णिम्ममा समणा । तम्हा हिंसायदणे अपरिहरंते कथमहिंसा ॥५॥ कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैरसे दब जाय और उसके निमित्तसे मर जाय तो उस क्षुद्र प्राणीके घातके निमित्तसे थोड़ा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्मदृष्टिसे मूर्छा अर्थात् ममत्वपरिणामको ही पहिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामको ही हिंसा कहा है ।।४६-४७॥" “जीव केवल हिंसामात्रसे हिंसक नहीं होता है किन्तु सावध अर्थात् राग-द्वेषरूप परिणामोंसे ही हिंसक होता है अतः राग-द्वेषादिसे रहित शुद्ध परिणामवाले जीवके जो कर्मोंका आस्रव होता है वह फलरहित है ऐसा जिनवरने कहा है ॥४८॥" ___ "ज्ञानी पुरुष कर्मके क्षयके लिये प्रस्तुत रहता है हिंसाके लिये नहीं। और वह प्रमादरहित होता हुआ सरल भावसे अहिंसाके लिये प्रयत्न करता है, इसलिये वह अवधक अर्थात् अहिंसक है ॥४६॥" ___ "साधुजन, जो त्याग करनेके लिये शक्य होता है उसके त्याग करनेका प्रयत्न करते हैं और जो त्याग करनेके लिये अशक्य होता है उसमें निर्मम होकर रहते हैं, इसलिये त्याग करनेके लिये शक्य भी हिंसायतनके परिहार नहीं करने पर अहिंसा कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ॥५०॥" सो जम्हा ॥"-ओधनि० गा० ७४८-७४९ "उच्चालियंमि' 'नय तस्स • जम्हा सो अपमत्तो साउ पमाउ त्ति निविट्ठा।"-श्रावकप्र० गा० २२३-२४ ।। (१) इयं गाथा लिखित प्रतिषु सर्वत्र “उच्चालियम्मि पाए" "णहि तग्घादणिमित्तो” इति गाथयोः मध्ये उपलभ्यते, परमर्थदृष्टया अस्माभिः यथास्थानं व्युत्क्रामिता । प्रवचनसारादिषु च अयमेव क्रमो दृश्यते । "न च हिंसामात्रेण, सावधेनापि हिंसको भवति । कुतः शुद्धस्य पुरुषस्य कर्मसंप्राप्तिरफला भणिता जिनवरैरिति ।"-ओघनि० टी० गा० ७५५ । (२) “उक्तं च-णाणी कम्मस्स"""-मूलारा०, विजयो० गा० ८०५॥ "णाणी कम्मस्स खयट्ठमुट्ठिओऽणुठितो य हिंसाए । जयइ असढं अहिंसत्थमुओि अवहओ सो उ॥.... तथा जयति कर्मक्षपणे प्रयत्नं करोतीत्यर्थः, 'असढं' ति शठभावरहितो यत्नं करोति न पुनर्मिथ्याभावेन सम्यरज्ञानयुक्त इत्यर्थः, तथा 'अहिंसत्थमुटठिओ' त्ति अहिंसार्थं 'उत्थितः' उद्युक्तः किन्तु सहसा कथमपि यत्नं कुर्वतोऽपि प्राणिवधः संजातः स एवंविधः अवधक एव साघुरिति । -ओपनि०, टी० गा० ७५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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