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________________ गा०. १ ] चवीसत्थवपरूवणं अंत्ता चेय अहिंसा अत्ता हिंस ति णिच्छयो समए । जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥४३॥ अज्झसिएण बंधो सत्ते मारेज्ज मा व मारेज्ज । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥४४॥ मेदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तण समिदीसु ॥४५॥ Jain Education International उच्चादिम्मि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमट्टाणे | आबादे ( घे) ज्ज कुलिंगो मरेज्ज तं जोगमासेज्ज ॥४६॥ " समय अर्थात् जिनागम में ऐसा निश्चय किया गया है कि आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है । उनमें जो प्रमादरहित आत्मा है वह अहिंसक है तथा जो इतर अर्थात् प्रमादसहित है वह हिंसक है ॥४३॥” "सत्त्व अर्थात् जीवोंको मारो या मत मारो, बन्धमें जीवोंको मारना या नहीं मारना प्रयोजक नहीं है । क्योंकि अध्यवसायसे अर्थात् रागादिरूप परिणामोंसे जीवोंके बन्ध होता है । निश्चयनयकी अपेक्षा यह बन्धका सारभूत कथन समझना चाहिये ||४४ || " " जीव मरो या मत मरो, तो भी यत्नाचारसे रहित पुरुषके नियमसे हिंसा होती है । किन्तु जो पुरुष समितियों में प्रयत्नशील है, अर्थात् यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, उसके हिंसामात्रसे अर्थात् प्रवृत्ति करते हुए किसी जीवकी हिंसा हो जाने मात्रसे बन्ध नहीं होता है ॥४५॥” "ईर्यासमिति से युक्त साधुके अपने पैरके उठाने पर उनके चलनेके स्थानमें यदि १०३ ( 2 ) " न हि जीवान्तरगतदेशतया अन्यतमप्राणवियोगापेक्षा हिंसा तदभावकृता वा अहिंसा, किंतु आत्मैव हिंसा आत्मा चैव अहिंसा । प्रमादपरिणत आत्मैव हिंसा अप्रमत्त एव च अहिंसा । उक्तं च-अत्ता व अहिंसा अत्ता हिंसत्ति" - मूलारा० विजयो० गा० ८०३ । ओघनि० गा० ७५४ । विशेषा० गा० ३५३६| (३) समयप्रा० गा० २८० । “जीवपरिणामायत्तो बंधो जीवो मृतिमुपैतु नोपेयाद्वा । तथा चाभाणि-अज्भसिदो य बद्धो सत्तो दु मरेज्ज णो मरिज्जेत्थ "मूलारा० विजयो० गा० ८०४ । ( ४ ) प्रवचन० ३|१७| उद्धृतेयम् - सर्वार्थ०, राजवा० ७।१३ । (५) “अथ तमेवार्थं दृष्टान्तदान्ताभ्यां द्रढयति - उच्चालियम्हि आबाधेज्ज कुलिंगं ण हि तस्स तणिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समए । मुच्छा परिग्गहो च्चि य अज्झपपमाणदो दिट्ठो | · · आबाधेज्ज आबाध्येत पीडयेत तं जोगमासेज्ज तं पूर्वोक्तं पादसंघट्टनमाश्रित्य प्राप्येति दृष्टान्तमाह-मुच्छा परिग्गहो च्चिय अयमत्रार्थ:- "मूर्च्छा परिग्रहः" इति सूत्रे यथा अध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न बहिरङ्गपरिग्रहानुसारेण तथात्र सूक्ष्मजन्तुघासेऽपि यावतांशेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति, न च पादसंघट्टमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा ततः कारणाद् बन्धोऽपि नास्तीति ।" - प्रवचन० जय० ३।१८-१।२॥ उद्धृते इमे - सर्वार्थ० राजवा० ७।१३। " आवादेज्ज यदि आपतेदागच्छेत् पादेन चंपिते सति " सर्वार्थ० टि० ७ १३ | " उच्चालियंमि पाए इरियासममियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्जा ॥ न य तस्स तिन्निमित्तो बंधो सुमो वि देसिओ समए । अणवज्जो उ पओगेण सव्वभावेण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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