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________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ गुववत्तीदो। ण च तित्थयरमण-वयण-कायवुत्तीओ इच्छापुग्वियायो जेण तेसिं बंधो होज्ज, किंतु दिणयर-कप्परुक्खाणं पउत्तिओ व्व वयिससियाओ । उत्तं च "कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥४०॥ रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पउंजइ पओअं । हिंसा वि तत्थ जायइ तम्हा सो हिंसओ होइ ॥४१॥ रोगादीणमणुप्पा अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए । तेसिं चे उम्पत्ती हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा ॥४२॥ उदय रूप ही हैं उनसे भी असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे वे प्रतिसमय पूर्वसंचित कर्मोंकी निर्जरा करते हैं, इसलिये उनके कर्मोंका संचय नहीं बन सकता है। और तीर्थंकरके मन, वचन तथा कायकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती हैं जिससे उनके नवीन कर्मोंका बन्ध होवे । जिसप्रकार सूर्य और कल्पवृक्षोंकी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक होती हैं उसीप्रकार उनके भी मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक अर्थात् बिना इच्छाके समझना चाहिये । कहा भी है "हे मुने, मैं कुछ करूं इस इच्छासे आपके मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ हुई सो भी बात नहीं है। और वे प्रवृत्तियाँ आपके बिना विचारे हुई हैं सो भी नहीं है। पर होती अवश्य हैं, इसलिये हे धीर, आपकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं । अर्थात् संसारमें जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती हैं वे इच्छापूर्वक होती हैं और जो प्रवृत्तियाँ बिना विचारे होती हैं वे ग्राह्य नहीं मानी जाती । पर यही आश्चर्य है कि आपकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक न होकर भी भव्यजीवोंके लिये उपादेय हैं ॥४०॥" “रागी द्वेषी अथवा मोही पुरुष जो भी क्रिया करता है उसमें हिंसा अवश्य होती है। और इसीलिये वह पुरुष हिंसक होता है। तात्पर्य यह है कि रागादि भाव ही हिंसाके प्रयोजक हैं उनके बिना केवल हिंसामात्रसे हिंसा नहीं होती है ॥४१॥" रागादिकका नहीं उत्पन्न होना ही अहिंसकता है ऐसा जिनागममें उपदेश दिया है। तथा उन्हीं रागादिककी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनदेवने निर्देश किया है ॥४२॥" (१) बृहत्स्व० श्लो०७४। (२) “तथा चोक्तम्-रत्तो वा. रक्तो द्विष्टो मूढो वा सन् प्रयोग प्रारभते तस्मिन् हिंसा जायते न प्राणिनः प्राणानां वियोजनमात्रेण, आत्मनि रागादीनामनुत्पादकः सोऽभिधीयते अहिंसक इति । यस्माद् रागाद्युत्पत्तिरेव हिंसा।"-मूला० विजयो० गा०८०२॥ "रक्त: आहाराद्यर्थं सिंहादिः द्विष्टः सादिः मढो वैदिकादिः यः एवंविधो रक्तो वा द्विष्टो वा मुढो वा यं प्रयोगं कायादिकं प्रयुक्ते तत्र हिंसापि जायते अपिशब्दादनतादि चोपजायते, अथवा हिंसापि एवं रक्तादिभावेनोपजायते न तु हिंसामात्रेणति वक्ष्यति, तस्मात् स हिंसको भवति यो रक्तादिभावयुक्तः इति । न च हिंसयव हिंसको भवति ।"-ओघनि० टी० गा० ७५७४(३) उद्धतेयम्-सर्वार्थ०, राजवा० ७२२ । तुलना-'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥"-पुरुषा० श्लो.४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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