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________________ गां०१] चउबीसत्थवपरूवणं संखाण-रसपरिचाय-विवित्तसयणासण-रुक्खमूलादावर्णभावासुक्कुदासण-पलियंकद्धपलियंक-ठाण-गोण-वीरासण-विणय-वेज्जावच्च-सज्झायझाणादिकिलेसेसु जीवे पयिसारिय खलियारणादो वा ण जिणा णिरवज्जा तम्हा ते ण वंदणिज्जा त्ति ? ८३. एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा, जयवि एवमुवदिसंति तित्थयरा तो वि ण तेर्सि कम्मबंधो अस्थि, तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयाभावेण वेयणीयवज्जासेसकम्माणं बंधाभावादो । वेयणीयस्स वि ण हिदिअणुभागबंधा अत्थि, तत्थ कसायपञ्चयाभावादो। जोगो अत्थि त्ति ण तत्थ पयडिपदेसबंधाणमत्थित्तं वोत्तुं सक्किजदे ? हिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुवयारेण बंधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलधम्मोवदेसेण अज्जियकम्मसंचओ वि अत्थि; उदयसरूंवकम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढीए पुव्वसंचियकॅम्मणिज्जरं पडिसमयं करतेसु कम्मसंचया अथवा, अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्षके मूलमें सूर्य के आतापमें और खुले हुए स्थानमें निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशोंमें जीवोंको डालकर उन्हें ठगनेके कारण भी जिन निरवद्य नहीं हैं, और इसलिये वे वन्दनीय नहीं हैं। ८३. समाधान-यहाँ पर उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं। वह इसप्रकार है-यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकारका उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबन्ध नहीं होता है, क्योंकि जिनदेवके तेरहवें गुणस्थानमें कर्मबन्धके कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम और कषायका अभाव हो जानसे वेदनीय कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मोंका बन्ध नहीं होता है । वेदनीय कर्मका बन्ध होता हुआ भी उसमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारणभूत कषायका अभाव है। तेरहवें गुणस्थानमें योग है, इसलिये वहाँ पर प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके अस्तित्वका भी कथन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थितिबन्धके बिना उदयरूपसे आनेवाले निषेकोंमें उपचारसे बन्धके व्यवहारका कथन किया गया है। जिनदेव देशव्रती श्रावकोंके और सकलव्रती मुनियोंके धर्मका उपदेश करते हैं, इसलिये उनके अर्जित कर्मोंका संचय बना रहता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनके जिन नवीन कर्मोंका बन्ध होता है जो कि (१)-च्चागवि-आ०, (२)-णब्भोवासु-अ०, आ० । (३) “समपलियंकणिसेज्जा समपदगोदोहिया उक्कुडिया। मगरमुहहत्थिसुंडीगोणणिसेज्जद्धपलियंका ॥ समपलियंकणिसेज्जा सम्यक्पर्यङ्कनिषद्या समपदं स्फिक्कसमकरणेनासनम्, गोदोहिगा-गोदोहने आसनमिव आसनम्, उक्कुडिगा-ऊर्ध्वं सङ्कचितमासनम्, मगरमुह-मकरस्य मुखमिव कृत्वा पादाववस्थानम्, हत्थिसुंडी-हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पादं प्रसार्यासनम्, हस्तं प्रसार्येत्यपरे, गोणणिसेज्ज अद्धपलियंक-गोनिषद्या गवासनमिव, अर्धपर्यङ्कम् ।"-मूलारा०, विजयो० गा० २२४। “स्थानवीरासनोत्कटुकासन - ‘स्थानग्रहणादूर्ध्वस्थानलक्षणकायोत्सर्गपरिग्रहः । वीरासनं तु जानुप्रमाणासनसन्निविष्टस्याधस्तात् समाकृष्यते तदासनम् . ."-त. भा०, टी० ९।१९।(४)-कम्माणि-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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