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________________ ८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ धिदिसेणो विजयो बुद्धिल्लो गंगदेवो धम्मसेणो त्ति एदे एक्कारस जणा दसपुव्वहरा जादा । तेसिं कालो तेसिदिसदवस्साणि १८३ । धम्मसेणे भयवंते सग्गं गदे भारहवस्से दसण्हं पुव्वाणं वोच्छेदो जादो । णवरि, णक्खत्ताइरियो जसपालो पांडू धुवसेणो कंसाइरियो चेदि एदे पंच जणा जहाकमेण एक्कारसंगधारिणो चोदसण्हं पुव्वाणमेगदेसधारिणो च जादा । एदेसि कालो बीसुत्तरविसदवासमेत्तो २२० । पुणो एकारसंगधारए कंसाइरिए सग्गं गदे एत्थ भरहखेत्ते णत्थि कोइ वि एक्कारसंगधारओ। ६७.णेवरि, तकाले पुरिसोलीकमेण सुहद्दो जसभद्दोजहवाहू लोहज्जो चेदि एदे चत्तारि वि आयारंगधरा सेसंगपुव्वाणमेगदेसधरा य जादा । एदेसिमायारंगधारीणं कालोअट्ठारसुत्तरं वाससदं ११८।पुणो लोहाइरिए सग्गंगदे आयारंगस्सवोच्छेदोजादो। . क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वोके धारी हुए । उनका काल एक सौ तिरासी वर्ष होता है । धर्मसेन भगवान्के स्वर्ग चले जाने पर भारतवर्षमें दस पूर्वोका विच्छेद हो गया। इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पाँडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह अंगोंके धारी और चौदह पूर्वोके एकदेशके धारी हुए। इनका काल दोसौ बीस वर्ष होता है । पुनः ग्यारह अंगोंके धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर यहाँ भरतक्षेत्रमें कोई भी आचार्य ग्यारह अंगोंका धारी नहीं रहा। . ६७. इतनी विशेषता है कि उसी कालमें पुरुषपरंपराक्रमसे सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहू और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांगके धारी और शेष अंग और पूर्वोके एकदेशके धारी हुए। आचारांगके धारण करनेवाले इन आचार्योंका काल एकसौ अठारह वर्ष होता है। पुनः लोहाचार्यके स्वर्ग चले जाने पर आचारांगका विच्छेद हो गया। इन समस्त ताण वासाणि ।। सव्वेसु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरहखेत्तम्मि । वियसंतभव्वकमला णसंति दसपुग्विदिवसयरा॥"-ति० ५० ५० ११३॥ (१)-द्धिलो अ०, (२)-सेणभय-आ० । (३) "जयपाल-"-ध० आ० । (४) "णक्खत्तो जयपालो पंड्सधुवसेणकंसआइरिया । एक्कारसंगधारी पंच इमे वीरतित्थम्मि ॥ दोण्णि सया वीसजुदा वासाणं ताण पिंडपरिमाणं । तेसु अदीदे णत्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥"-ति० ५० ५० ११४। “तदो धम्मसेणभडारए सग्गं गदे ण8 दिट्टिवादुज्जोए एक्कारसण्णमंगाणं दिट्ठिवादेगदेसधारओ णक्खत्ताइरियो जादो । तदो तमेक्कारसंग सुदणाणं जयपालपांडुधुवसेणकंसो त्ति आइरियपरंपराए वीसुत्तरवेसदवासाइमागतूण वोच्छिण्णं ॥" -ध० आ० प० ५३७। इन्द्र० श्लो० ८२ । (५) “पढमो सुभद्दणामो जसभद्दो तह य होदि जसबाहू । तुरिमो य लोहणामो एदे आयारअंगधरा ॥ सेसेक्करसंगाणं चोइसपुव्वाणमेक्कदेसधरा। एक्कसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ॥ तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होंति भरहम्मि । गोदममुणिपहुदीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी ।।"-ति० ५० ५० ११४ । “तदो कंसाइरिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोवे सुभद्दाइरियो आयारंगस्स सेसंगपुव्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो। तदो तमायारंगं पि जसभद्द-जसवाहु-लोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तरवरिससयमागंतूण वोच्छिण्णं ।"-ध० आ० ५० ५३७ । "प्रथमस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्योऽपरोपि जयबाहुः । लोहार्योऽन्त्यश्चैतेऽष्टादशवर्षायुगसंख्या ॥"-इन्द्र० श्लो० ८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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