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________________ ८७ गा० १] कसायपाहुडपरंपरापरूवणं एदेसि सव्वेसिं कालाणं समासो छसदवासाणि तेसीदिवासेहि समहियाणि ६८३ । वड्ढ़माणजिणिदे णिव्वाणं गदे पुणो एत्तिएसु वासेसु अइकं तेसु एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसधारया जादा । ६८. तदो अंगपुव्वाणमेगदेसोचेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो । पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचमपुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुडमहण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छलपरवसीकयहियएण एदं पेज्जदोसपाहडं सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदि-सदमेत्तगाहाहि उवसंधारिदं । पुणो ताओ चेव सुत्तकालोंका जोड़ ६२+१००+१८३+२२०+११८-६८३ तेरासी अधिक छहसौ वर्ष होता है। विशेषार्थ-तीन केवलियोंके नामों में से धवलामें सुधर्माचार्यके स्थानमें लोहार्य नाम आया है । लोहार्य सुधमाचार्यका ही दूसरा नाम है। जैसा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी 'तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण' इस गाथांशसे प्रकट होता है। तथा दस पूर्वधारियों के नामोंमें जयसेनके स्थानमें जयाचार्य, नागसेनके स्थानमें नागाचार्य और सिद्धार्थके स्थानमें सिद्धार्थदेव नाम धवलामें आया है। इन नामोंमें विशेष अन्तर नहीं है। मालूम होता है कि प्रारंभके दो नाम जयधवलामें पूरे लिखे गये हैं और अन्तिम नाम धवलामें पूरा लिखा गया है। तथा ग्यारह अंगके नामधारियोंमें जसपालके स्थानमें धवलामें जयपाल नाम आया है। बहुत संभव है कि लिपिदोषसे ऐसा हो गया हो या ये दोनों ही नाम एक आचार्यके रहे हों। इसीप्रकार आचारांगधारी आचार्योंके नामोंमें जहबाहूके स्थानमें धवलामें जसबाहू नाम पाया जाता है। इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें इसी स्थानमें जयबाहू यह नाम पाया जाता है इसलिये यह कहना बहुत कठिन है कि ठीक नाम कौन सा है। लिपिदोषसे भी इसप्रकारकी गड़बड़ी हो जाना बहुत कुछ संभव है। जो भी हो । यहां एक ही आचार्यकी दोनों कृति होनेसे पाठभेदका दिखाना मुख्य प्रयोजन है। वर्द्धमान जिनेन्द्रके निर्वाण चले जानेके पश्चात् इतने अर्थात् ६८३ बर्षोंके व्यतीत हो जाने पर इस मरतक्षेत्रमें सब आचार्य सभी अंगों और पूर्वोके एकदेशके धारी हुए । ६८. उसके पश्चात् अंग और पूर्वोका एकदेश ही आचार्यपरंपरासे आकर गुणवर आचार्यको प्राप्त हुआ। पुनः ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वकी दसवीं वस्तुसंबन्धी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासमुद्रके पारको प्राप्त श्री गुणधर भट्टारकने, जिनका हृदय प्रवचनके वात्सल्यसे भरा हुआ था सोलह हजार पदप्रमाण इस पेजदोसपाहुडका ग्रन्थ विच्छेदके भयसे, केवल एक सौ अस्सी गाथाओंके द्वारा उपसंहार किया। (२) "सव्वकालसमासो तेयासीदिए अहियछस्सदमेत्तो।"-ध० आ० ५० ५३७ । (२) समयाहियाअ०, आ०। (३) “अधिकाशीत्या युक्तं शतं च मूलसूत्रगाथानाम् । विवरणगाथानाञ्च व्यधिकं पञ्चाशत. मकार्षीत् ॥"-इन्द्र० श्लो० १५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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