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________________ D . गा० १] पाइरियपरंपरापरूवणं केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुई गदो। एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली । ६५. एदम्हि णिव्वुइं गदे विष्णुआइरियो सयलसिद्धंतिओ उवसमियचउकसायो णंदिमित्ताइरियस्स समप्पियदुवालसंगो देवलोअं गदो। पुणो एदेण कमेण अवराइयो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पंच पुरिसोलीए सयलसिद्धतिया जादा । एदेसि पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालो वस्ससदं १०० । तदो भद्दबाहुभयवंते सग्गं गदे सयलसुदणाणस्स वोच्छेदो जादो। ६६. णवरि, विसाहाइरियो तकाले आयारादीणमेकारसण्हमंगाणमुप्पायपुव्वाईणं दसण्हं पुव्वाणं च पच्चक्खाण-पाणावाय-किरियाविसाल-लोगबिंदुसारपुव्वाणमेगदेसाणं च धारओ जादो । पुणो अतुट्टसंताणेण पोहिल्लो खत्तिओ जयसेणो णागसेणो सिद्धत्थो विहाररूपसे विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। ये जम्बूस्वामी इस भरतक्षेत्रसंबन्धी अवसर्पिणी कालमें पुरुषपरंपराकी अपेक्षा अन्तिम केवली हुए हैं। ६५. इन जम्बूस्वामीके मोक्ष चले जाने पर सकल सिद्धान्तके ज्ञाता और जिन्होंने चारों कषायोंको उपशमित कर दिया था ऐसे विष्णु आचार्य, नन्दिमित्र आचार्यको द्वादशांग समर्पित करके अर्थात् उनके लिये द्वादशाङ्गका व्याख्यान करके देवलोकको प्राप्त हुए । पुनः इसी क्रमसे पूर्वोक्त दो, और अपराजित गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु इसप्रकार ये पाँच आचार्य पुरुषपरंपराक्रमसे सकल सिद्धान्तके ज्ञाता हुए। इन पाँचों ही श्रुतकेवलियोंका काल सौ वर्ष होता है। तदनन्तर भद्रबाहु भगवानके स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञानका विच्छेद हो गया। ६६. किन्तु इतना विशेष है कि उसी समय विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगोंके और उत्पादपूर्व आदि दशपूर्वोके तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार इन चार पूर्वोके एकदेशके धारक हुए। पुनः अविच्छिन्न संतानरूपसे प्रोष्ठिल्ल, (१) "तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामि त्ति केवली जादो । तम्मि सिद्धि पत्ते केवलिणो णत्थि अणुबद्धा ।। वासट्ठी वासाणि गोदमपहुदीण णाणवंताणं । धम्मपवट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेण ॥"-ति० ५० ५० ११३। "एवं महावीरे णिव्वाणं गदे वासविरिसेहिं केवलणाणदिवायरो भरहम्मि अथमिओ।"-ध० आ० ५० ५३७। "श्रीवीरमोक्षदिवसादपि हायनानि चत्वारिषष्टिमपि च व्यतिगम्य जम्बः।।"-परिशिष्ट० ४।६१ "सिरिवीराउ सुहम्मो वीसं चउचत्तवास जंबुस्स" विचार। (२) “णंदी य णंदिमित्तो विदिओ अवराजिदो तदिओ। गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दबाहु त्ति ।। पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुव्वी जगम्मि विक्खादा। ते वारस अंगधरा तित्थे सिरिवडढमाणस्स ।। पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं। वीरम्मि य पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ॥"-ति० ५० ५० ११३। "एदेसि पंचण्णं पि सुदकेवलीणं कालसमासो वस्ससदं"-ध० आ० प० ५३७ । इन्द्र० श्लो० ७८। (३) “णवरि एक्कारसण्हमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिठिवादस्स यथारओ (?) विसाहाइरिओ जादो, णवरि उवरिमचत्तारि वि पूव्वाणि वोच्छिण्णाणि तदेगदेसधारणादो।"-ध० आ० प०५३७। (४) हेट्टिल्लो अ०, आ०, स० । ''पुणो तं विगलसुदणाणं पोठिल्लखत्तियजयणागसिद्धत्थधिदिसेणविजयबुद्धिल्लगंगदेवधम्मसेणाइरियपरंपराए तेरासीदिवरिससयाइमागंतण वोच्छिण्णं।"-ध० आ० ५० ५३७॥ इन्द्र० श्लो०८० "पढमो विसाहणामो पुठिल्लो खतिओ जओ णागो। सिद्धत्थो धिदिसेणो विजओ बुद्धिलगंगदेवा य । एक्कारसो य सुधम्मो दसपुत्वधरा इमे सुविक्खादा । पारंपरिओवगमदो तेसीदिसदं च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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