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________________ ८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती बीसपरीसहपसरस्स सञ्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोतेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारियदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स मुंहमा(म्मा)इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। तदो केत्तिएण वि कालेण केवलणाणमुप्पाइय बारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इद दिभडारओ णिव्वुई संपत्तो १२ । तैदिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो। तदो सुहम्मभडारयो वि बारहवस्साणि १२ केवलविहारेण विहरिय णिव्वुई पत्तो। तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ विटु (विष्णु)आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो केवली जादो। सो वि अहत्तीसवासाणि ३८ समिति और तीन गुप्तियोंका परिपालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहोंके प्रसारको जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है ऐसे आर्य इन्द्रभूतिके लिये उन महावीर भट्टारकने अर्थका उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्रमें उत्पन्न हुए इन्द्रभूतिने एक अन्तर्मुहूर्तमें द्वादशाङ्गके अर्थका अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप अन्थोंकी रचना की और गुणोंसे अपने समान श्री सुधर्माचार्यको उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञानको उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलिविहाररूपसे विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्माचार्य, जंबूस्वामी आदि अनेक आचार्योंको द्वादशांगका व्याख्यान करके चार घातिया कर्मोंका क्षयकरके केवली हुए । तदनन्तर सुधर्म भट्टारक, भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूपसे विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। उसी दिन जंबूस्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियोंको द्वादशांगका व्याख्यान करके केवली हुए। वे जंबूस्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवलि (१)-गोदेण आ० । “विमले गोदमगोत्ते जादेणं इंदभूदिणामेण। चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण || भावसुदपज्जयहि परिणदमइणा य बारसंगाण। चोइसपूव्वाण तहा एक्कमहत्तण विरचणा विहिदो।" -ति० ५० १७८-७९ । “उत्तं च गोतेण गोदमो विप्पो चाउव्वेय-सडंग वि। णामेण इंदभूदि ति सीलयं बम्हणत्तमो। पुणो तेणिदभूदिणा भाव सुदपज्जयपरिणदेण . . . ."-ध० सं० पृ० ६५। ध० आ० ५० ५३७ । (२) धवलायां सुधर्माचार्यस्य स्थाने लोहाचार्यस्योल्लेखोऽस्ति । तद्यथा-"तेण गोदमेण दुविहमवि सुदणाणं लोहज्जस्स संचारिदं ।"-ध० सं० पृ० ६५ । ध० आ० ५० ५३७ । “प्रतिपादितं ततस्तच्छ्रुतं समस्तं महात्मना तेन । प्रथितमात्मीयसधर्मणे सुधर्माभिधानाय ॥"-इन्द्र० श्लो०६७ । लोहार्यस्य अपरं नाम सुधर्म आसीत् । तथाहि-"तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जण य सुधम्मणामेण य । गणधरसुधम्मणा खलु जम्बूणामस्स णिद्दिट्ठो॥" -जम्बू०प०१०। (३) “जादो सिद्धो वीरो तहिवसे गोदमो परमणाणी। तस्सि सिद्धे सुद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ॥"-त० ५० ५० ११३। “गोदमसामिम्हि णिव्वदे संते लोहज्जाइरिओ केवलणाणसंताणहरो जादो।" -ध० आ० ५० ५३७। ध० सं० पृ०६५। "गौतमनामा सोऽपि द्वादशभिर्वत्सरैर्मुक्तः ॥ निर्वाणक्षण एवासावापत्केवल सुधर्ममुनिः ।। द्वादशवर्षाणि विहृत्य सोऽपि मुक्ति परामाप"-इन्द्र० श्लो० ७२-७३। “मोक्षं गते महावीरे सुधर्मा गणाभृद्वरः । छद्मस्थो द्वादशाब्दानि तस्थौ तीर्थं प्रवर्तयन् ।। ततश्च द्वानवत्यब्दी प्रान्ते सम्प्राप्तकेवलः । अष्टाब्दी विजहारोवी भव्यसत्त्वान प्रबोधयन ॥"-परिशिष्ट० ४।५७-५८। विचार०। (४) संपत्ती आ० । (५) 'जम्बूनामापि ततस्तन्निर्वृतिसमय एव कैवल्यम् । प्राप्याष्टत्रिंशमिह समा विहृत्याप निर्वाणम् ॥" -इन्द्र०इलो०७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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