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________________ गा ० १ ] आइरिणीददव्वागमस्स पभाणत्तं ८३ कमेण आगयत्तादो अप्पमाणं वट्टमाणकालदव्वागमो ति ण पञ्चवहादुं जुत्तं राग-दोषभयादीदआइरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो । तं जहा, तेण महावीरभडारएण इंदभूदिस्स अज्जस्स अज्जखेत्तुप्पण्णस्स चंउरमलबुद्धिसंपण्णस्स दिनुग्गतत्तTata अणिमादिअट्ठविहविउव्वणलद्धिसंपण्णस्स सव्वहसिद्धिणिवासिदेवेहिंतो अनंतगुणबलरस मुहुतेकेण दुवाल संगत्थगंथाणं सुमरण-पैरिवादिकरणक्खमस्स सयपाणिपत्तणिवदिदव्वं पि अमिय सरूवेण पल्लट्टावणसमत्थस्स पत्ताहारवसहि - अक्खीणरिद्धिस्स सव्वोहिणाणेण दिहासेसपोग्गलदव्वस्स तपोबलेण उप्पायिदुक्कस्स विउलमदिमणपज्जवणाणस्स सत्तभयादीदस्स खविदचदुकसायस्स जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स डिवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अहमाउगणपरिवालियस्स भग्गबा - आगम जिन आचार्योंके द्वारा हम तक लाया गया है वे प्रमाण नहीं थे । अतएव वर्तमानकालीन द्रव्यागम अप्रमाण है, सो उसका ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भय से रहित आचार्यपरंपरा से आया हुआ है इसलिये उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है । आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं जो आर्य क्षेत्रमें उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययः इन चार निर्मल ज्ञानोंसे संपन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उम्र और तप्त तपको तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकारकी वैक्रियक लब्धियोंसे संपन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धिमें निवास करनेवाले देवोंसे अनन्तगुणा बल है, जो एक मुहूर्तमें बारह अंगोंके अर्थ और द्वादशाँगरूप ग्रंथोंके स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने पाणिपात्रमें दी गई खीरको अमृतरूपसे परिवर्तित करनेमें या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थानके विषयमें अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञानसे अशेष पुद्गलद्रव्यका साक्षात्कार कर लिया है, तपके बलसे जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकारके भयसे रहित हैं, जिन्होंने चार कषायका क्षय कर दिया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियोंको जीत लिया हैं, जिन्होंने मन, वचन और कायरूप तीन दंडोंको भन कर दिया है, जो छह कायिक जीवोंकी दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदोंको नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो आठ प्रवचन मातृकगणोंका अर्थात् पाँच (१) "तप्तदीप्तादितपसः सुचतुर्बुद्धिविक्रियाः । अक्षीणौषधिलब्धीशाः सद्रसर्द्धिबलर्द्धयः ।। " - हरि० ३।४४ | ध० आ० प० ५३६ । “ एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ - पबुद्धितवविउव्वणोसहरसबलअक्खीणसुस्सरशादी । ओहिमणपज्जवेहि य हवंति गणवालया सहिया ।।" - ध० आ० प०५३६। " सव्वे य माहणा. जच्चा सव्वे अभावया विऊ । सब्वे दुवालसंगीआ सव्वे चउदसपुव्विणो ॥ " -आ० नि० गा० ६५७ । ( २ ) - परिवाडीक - अ०, आ०।- परिवादीक स० (३) दिददव्वं आ०। (४) तुलना - "ववगत रागदोसा तिगुत्तिगुत्ता तिदंडोवरता णीसल्ला आयरक्खी ववगयचउवकसाया चउविकहविवज्जिता : चउमहव्वतिगुत्ता पंचिदियसुवुडा छज्जीवणिकायट्टुणिरता सत्तभयविप्यमुक्का अट्ठमयट्ठाणजढा णवबंभचेरगुत्ता दससमाहिट्ठाण संपयुत्ता - ऋषि० २५।१ । ...." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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