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________________ ८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ १ पेज्जदोसविहत्ती वच्छओ अलद्धोवदेसंत्तादो दोहमेक्कस्स पहाणु (बाहौणु ) वलंभादो, किंतु दोसु एकेण होदव्वं, तं च उवदेसं लहिय वत्तव्वं । ९६४. जिणउवदिवत्तादो होदु दव्वागमो पमाणं, किंतु अप्पमाणी भूदपुरिसपव्वोलीविषय में अपनी जवान नहीं चलाना चाहिये, क्योंकि इन दोनोंमेंसे कौन योग्य है और कौन अयोग्य है इस विषयका उपदेश प्राप्त नहीं है तथा दोनोंमेंसे किसी एक उपदेशके समीचीन होने में बाधा भी नहीं पाई जाती है । किन्तु दोनोंमेंसे एक ही होना चाहिये | और वह एक उपदेश पाकर ही कहना चाहिये । अर्थात् यद्यपि दोनों उपदेशों में से कोई एक उपदेश ही ठीक है यह तभी कहा जा सकता है जब उसके सम्बन्ध में कोई उपदेश मिले । विशेषार्थ - आगम में एक उपदेश इसप्रकार पाया जाता है कि चौथे कालमें पचहत्तर वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान् महावीर स्वर्गसे अवतीर्ण हुए और दूसरा उपदेश इसप्रकार पाया जाता है कि चौथे कालमें पचहत्तर वर्ष और दस दिन शेष रहने पर भगवान् महावीर स्वर्गसे अवतीर्ण हुए । इन दोनों उपदेशों के अनुसार यह तो सुनिश्चित है कि चौथे कालमें तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान् महावीर निर्वाणको प्राप्त हुए । अन्तर केवल उनकी आयुके संबन्ध में है । पहले उपदेशके अनुसार भगवान् महावीर की आयु बहत्तर वर्षप्रमाण बतलाई गई है और दूसरे उपदेश के अनुसार इकहत्तर वर्ष तीन माह और पच्चीस दिनप्रमाण बतलाई गई है । दूसरे उपदेशके अनुसार वर्ष, माह और दिनोंकी सूक्ष्मतासे गणना करके आयु सुनिश्चित की गई है पर पहले उपदेश में स्थूल मानसे आयु कही गई प्रतीत होती है । उपर्युक्त दोनों मान्यताओंके अन्तरका कारण यही है यह सुनिश्चित होते हुए भी वीरसेन स्वामी उक्त दोनों उपदेशोंका संकलनमात्र कर रहे हैं, निर्णय कुछ भी नहीं दे रहे हैं। साथ ही यह भी सूचना करते हैं कि एलाचार्य के शिष्यको इन उपदेशोंकी प्रमाणता और अप्रमाणता के निश्चय करनेमें अपनी जीभ नहीं चलानी चाहिये । यहाँ मुख्य विवादका कारण दूसरे उपदेशके अनुसार सुनिश्चित की गई आयु न होकर पहिले उपदेश के अनुसार सुनिश्चित की गई आयु है । यह तो निश्चितप्राय है कि जब गर्भ और निर्वाणकी तिथि एक नहीं है तो पूरे बहत्तर वर्षप्रमाण आयु नहीं हो सकती। आयु या तो बहत्तर वर्षसे कम होगी या अधिक । पर पूरे बहत्तर वर्षप्रमाण आयुके कहने में क्या रहस्य छिपा हुआ है, यह वर्तमान काल में अज्ञात • है, उसके जाननेका वर्तमान में कोई साधन नहीं है, इसलिये पहले उपदेशको अप्रमाण तो कहा नहीं जा सकता । और यही सबब है कि वीरसेन स्वामीने दोनों उपदेशोंका संकलनमात्र कर दिया पर अपना कुछ भी निर्णय नहीं दिया । $६४. यदि कोई ऐसा माने कि जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट होनेसे द्रव्यागम प्रमाण होओ किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुषपरंपरा से आया हुआ है । अर्थात् भगवान्‌के द्वारा उपदिष्ट (१) - देसादो अ० आ०, ता० । (२) "बाहाणुलंभादो " '-ध० आ० प० ५३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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