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________________ जवलास हिदे कसा पाहुडे " खीणे दंसणमोहे चरितमोहे तहेव घाइतिए । सम्मत्तणाणविरिया खइया ते होंति केवलिणो ॥ १४॥ उप्पण्णम्मि अणंते णट्टम्मिय छादुमत्थिए णाणे । देविंददाणविंदा करेंति पूजं जिणवरस्स || १५ || " $ ५०. अघाइचउक्कमत्थि त्ति ण तस्स देवत्ताभावो; देवभावं घाइदुमसमत्थे अघाइचउक्के संतेवि देवत्तस्स विणासाभावादो । अघाइचउक्कं देवत्तविरोहिं ण होदि ति कथं व्वदे ? तस्स अघाइसण्णण्णहाणुववत्तदो । ६८ ५१. किं च, ण च णाम- गोदाणि अवगुणकारणं; खीणमोहम्मि राय - दोससंभवाभावादो | ण च आउअं तक्कारणं; खेत्तजणिददोसाभावादो, लोअसिहरगमणं पडि सिद्धसेव उक्कंठाभावादो च । ण च वेयणीयं तक्कारणं; असहेज्जत्तादो । घाइचउक्क"दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय हो जाने पर तथा उसीप्रकार शेष तीन घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर केवली जिनके सम्यक्त्व, ज्ञान और वीर्य ये क्षायिक भाव प्रकट होते हैं ॥ १४ ॥ | " "क्षायोपशमिक ज्ञानके नष्ट हो जाने पर और अनन्त ज्ञानके उत्पन्न होने पर देवेन्द्र और दानवेन्द्र जिनवरकी पूजा करते हैं ।।१५।।” ५०. चार अघातिया कर्म विद्यमान हैं, इसलिये वर्द्धमान जिनके देवत्वका अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि चार अघातिया कर्म देवत्व के घात करनेमें असमर्थ हैं, इसलिये उनके रहने पर भी देवत्वका विनाश नहीं हो सकता है । [ पेज्जदोसविहत्ती ? शंका- - चार अघातिया कर्म देवत्वके विरोधी नहीं हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-चार अघातिया कर्म यदि देवत्वके विरोधी होते तो उनकी अघातिसंज्ञा नहीं बन सकती थी, इससे प्रतीत होता है कि चार अघातिया कर्म देवत्वके विरोधी नहीं हैं । sitar और भी स्पष्टीकरण करते हैं ५१. नामकर्म और गोत्रकर्म तो अवगुणके कारण हैं नहीं, क्योंकि जिन क्षीणमोह हैं. इसलिये उनमें नाम और गोत्रके निमित्तसे राग और द्वेष संभव नहीं हो सकते हैं । आयुकर्म भी अवगुणका कारण नहीं है, क्योंकि क्षीणमोह जिन भगवान्में वर्तमान क्षेत्रके निमित्तसे द्वेष नहीं उत्पन्न होता है और आगे होनेवाले लोकशिखरपर गमनके प्रति सिद्ध के समान उनके उत्कण्ठा नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि केवली जिनके विद्यमान आयुकर्म (१) "दंसणमोहे णट्ठे घादितिदए चरितमोहम्म । सम्मत्तणाणदंसणवीरियनरियाइ होंति खइयाई ॥ " - ति० प० १।७३ | उद्धृतेयम् - ध० सं० पृ० ६४ | ध० आ० प० ५३५ । ( २ ) " जादे अनंतणा ट्ठे छदुमट्ठिदम्मि णाणम्मि । णवविहपदत्थसारा दिव्वज्भुणी कहद्द सुत्तत्थं ||" - ति० प० १७४ | उद्धृतेयम् - ध० सं० पू० ६४ | ध० आ० प० ५३५ । “उप्पन्नमि अनंते नट्ठम्मि अ छाउमत्थिए नाणे । राईए संपत्तो महसेणवणम्मि उज्जाणे ॥ एगंते य विवित्तो उत्तरपासम्मि जन्नवाडस्स । तो देवदाविदाकरिति महिमं जिणिस्स ॥" -आ० नि० गा० ५३९, ५४१ । ( ३ ) - रोही ण-अ०, आ०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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