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________________ गा० १ ] कवलाहारवियारो सहेज्जं संतं वेयणीयं दुक्खुप्पाययं । ण च तं घाइचउक्कमत्थि केवलिम्हि, तदो ण सकज्जजणणं वेयणीयं जलमाहियादिविरहियबीजं वेत्ति | वेयणीयस्स दुक्खमुप्पाएंतस्स घाइचउकं सहेज्जयमिदि कधं णव्वदे ? तिरयणपउत्तिअण्णहाणुववत्तीदो। ___ ५२. घाइकम्मे णढे संते वि जइ वेयणीयं दुक्खमुप्पायइ तो सतिसो सभुक्खो केवली होज्ज ? ण च एवं; भुक्खातिसासु कूर-जलविसयतण्हासुसंतीसु केवलिस्स सेमोहदावत्तीदो । तण्हाए ण भुंजइ, किंतु तिरयणहमिदि ण वोत्तुं जुत्तं तत्थ पत्तासेससरूवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणहें भुंजइ; पत्तकेवलणभावादो। ण च केवलअवगुणोंका कारण नहीं है। तथा वेदनीय कर्म भी अवगुणोंका कारण नहीं है, क्योंकि यद्यपि केवली जिनके वेदनीय कर्मका उदय पाया जाता है फिर भी वह असहाय होनेसे अवगुण उत्पन्न नहीं कर सकता है। चार घातिया कर्मोंकी सहायतासे ही वेदनीय कर्म दुःखको उत्पन्न करता है, परन्तु केवली जिनके चार धातिया कर्म नहीं है, इसलिये जल और मिट्टीके बिना बीज जिसप्रकार अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है उसीप्रकार वेदनीय भी घातिचतुष्कके बिना अपना कार्य नहीं कर सकता है। शंका-दुःखको उत्पन्न करनेवाले वेदनीय कर्मके दुःखके उत्पन्न करानेमें घातिचतुष्क सहायक है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यदि चार घातिया कर्मोंकी सहायताके बिना भी वेदनीय कर्म दुःख देने में समर्थ हो तो केवली जिनके रत्नत्रयकी निर्बाध प्रवृत्ति नहीं बन सकती है इससे प्रतीत होता है कि घातिचतुष्ककी सहायतासे ही वेदनीय अपना कार्य करने में समर्थ होता है । ___ ५२. घातिकर्मके नष्ट हो जाने पर भी वेदनीय कर्म दुःख उत्पन्न करता है यदि ऐसा माना जावे तो केवली जिनको भूख और प्यासकी बाधा होनी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि भूख और प्यास में भातविषयक और जलविषयक तृष्णाके होने पर केवली भगवान्को मोहीपनेकी आपत्ति प्राप्त होती है। ___ यदि कहा जाय कि केवली जिन तृष्णावश भोजन नहीं करते हैं किन्तु रत्नत्रयके लिये भोजन करते हैं, सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूपसे आत्मस्वरूपको प्राप्त कर चुके हैं, इसलिये 'वे रत्नत्रय अर्थात ज्ञान, संयम और ध्यान के लिये भोजन करते हैं' यह बात संभव नहीं है। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं, केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिये तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञानको (१) “घादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं"-गो० क० गा० १९। "मोहनीयसहायं हि वेद्यादिकर्म क्षदादिकार्यकरणे अविकलसामर्थ्य भवति ।"-न्यायकुमु० पृ. ८५९ । प्रव० टी० पृ० २८ । रत्नक० टी० १०६। भावसं० श्लो० २१६ । (२) "कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसङ्गः"-प्रमेयक० १० ३००। (३) तुलना-"किमर्थञ्चासौ भुङक्ते-शरीरोपचयार्थम, ज्ञानध्यानसंयमसंसिद्धयर्थं वा, क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थं वा, प्राण त्राणार्थं वा ?" प्रमेयक० पृ० ३०६ । न्यायकुमु० पृ० ८६३ । प्रव०टी० पु० २९ । (४)-णाणाभावा-अ०, ता०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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