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________________ गा० १] वड्ढमाणजिणिदस्स देवत्तसिद्धी ४७. ण च एसो असंतं भणदि; एदम्हि अलीयकारणरायदोसमोहाणमभावादो। ४८. एसो एवंविहो वड्ढमाणभयवतो किं सयलकम्मकलंकादीदो, आहो णेदि? णादिपक्खो; सयलकम्माभावेण असरीरत्तमुवगयस्स उवदेसाभावादो। णेयरपक्खो वि; सकलंकस्स देवत्ताभावेण तदुवइवयणकलावस्स आगमत्ताणुववत्तीदो । ण चादेववयणमागमो; रच्छादु(धु)त्तवयणाणं पि आगमत्तप्पसंगादो त्ति । $४६. एत्थ परिहारो वुच्चदे। ण पढमपक्खो; अणब्भुवगमादो। ण विदियपक्खणिक्खेवोत्तदोसो वि संभवइ; देवत्तविणासयकलंकाभावेण सयलदेवभावुप्पत्तीदो घाइचउक्केण सयलावगुणणिबंधणेण देवत्तं विणासिज्जदि, ण च तं तत्थ अत्थि, जेण वड्ढमाणभयवंतस्स देवत्ताभावो होज्ज । उत्तं च $ ४७. यदि कहा जाय कि केवली अभूतार्थका प्रतिपादन करते हैं, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि असत्यके कारणभूत राग, द्वेष और मोहका उनमें अभाव है। ४८. शंका-इसप्रकारके वे महावीर भगवान् सकल कर्मकलंकसे रहित हैं, या नहीं ? इनमेंसे पहला पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान महावीरको सकल कोंसे रहित मान लेने पर वे अशरीर हो जायेंगे और इसलिये उनका उपदेश नहीं बन सकेगा। इसीप्रकार वे सकल कर्मसे युक्त हैं यह दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि सकलंक मान लेने पर उनमें देवत्व नहीं बन सकेगा और इसलिये उनके द्वारा उपदिष्ट वचनकलाप आगम नहीं हो सकेगा। यहि कहा जाय कि अदेवका वचन भी आगम हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मुहल्ले-गलीकूचोंमें घूमनेवाले आवारा और धूर्त पुरुषके वचनको भी आगमपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ? ___$४६. समाधान-आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं। उपर्युक्त दो पक्षोंमेंसे 'वे सकल कर्म कलंकसे रहित हैं' यह पहला पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि जिन शासनमें अरहंत अवस्थाको प्राप्त भगवान् महावीरको सकल कर्मकलंकसे रहित नहीं माना है। उसीप्रकार दूसरे पक्ष में दिया गया दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि देवत्वका नाश करनेवाले चार घातियारूपी कर्मकलंकके अभावसे उनमें पूर्णरूपसे देवपनेकी उत्पत्ति हो गई है। सकल अवगुणोंके कारणभूत चार घातिकर्मोंसे देवत्वका विनाश होता है, परन्तु अरहंत अवस्थाको प्राप्त वर्द्धमान जिनमें चार घातिकर्म नहीं हैं जिससे वर्द्धमान भगवान के देवत्वका अभाव होवे। अर्थात् चार घातिकर्मों के अभाव हो जानेके कारण उनके देवत्वका अभाव नहीं कहा जा सकता है। कहा भी है (१) "रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणाम"-नियम० गा० ५७ । “रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥"-यश० उ० पृ० २७४ । आप्तस्व० श्लो० ४। “सत्यं वक्ष्यन्ति ते कस्मादसत्यं नीरजस्तमाः ।"-चरक सू० ११।१९। "क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धत्वसंभवात्"-सांख्य० मा० पृ० १३। (२)-विणासयलकलं-अ०, आ०,। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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