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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती १ वयवगयआवरणस्स जिम्मूलविणासे संते एगावयवेणेव गहणविरोहादो। तदो पत्तमपत्तं च अकमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्धं । "ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धरि । दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धरि ॥१३॥" वहाँ अभाव है। यदि कहा जाय कि केवली आत्माके एकदेशसे पदार्थोंका ग्रहण करता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्माके सभी प्रदेशोंमें विद्यमान आवरण कर्मके निर्मूल विनाश हो जानेपर केवल उसके एक अवयवसे पदार्थों का ग्रहण माननेमें विरोध आता है। इसलिये प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थोंको युगपत् अपने सभी अवयवोंसे केवली जानता है यह सिद्ध हो जाता है। कहा भी है ____ "प्रतिबन्धकके नहीं रहने पर ज्ञाता ज्ञेयके विषयमें अज्ञ कैसे रह सकता है। अर्थात् प्रतिबन्धक कारणके नहीं रहने पर ज्ञान स्वभाव होनेसे ज्ञाता ज्ञेय पदार्थको अवश्य जानेगा। फिर भी यदि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थको न जाने तो प्रतिबन्धक ( मणि मंत्रादि ) के नहीं रहने पर दाह स्वभाव होनेसे अग्निको भी दाह्य पदार्थको नहीं जलाना चाहिये ॥१३॥" विशेषार्थ-ऊपर यह सिद्ध कर ही आये हैं, कि जैसे जैसे सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी वृद्धि होती जाती है तदनुसार ज्ञानांशोंके प्रतिबन्धक कर्मोंका अभाव भी होता जाता है, इसप्रकार अन्तमें ज्ञानांशोंके आवारक कर्मोंका पूरी तरहसे अभाव हो जाने पर समस्त ज्ञानांश प्रकट हो जाते हैं। तथा समस्त ज्ञानांशोंके प्रकट हो जाने पर केवल एक अंशसे केवली जानते हैं शेष अंशोंसे नहीं यह कैसे संभव है। शेष ज्ञानांशोंके आवारक कर्मोंके विद्यमान रहने पर ही उनकी प्राप्त और अप्राप्त पदार्थोके ग्रहण करनेमें प्रवृत्ति न हो यह तो संभव है पर यह संभव नहीं कि प्रतिबन्धक कारण भी नष्ट हो जायँ फिर भी ज्ञान अपने ज्ञेयमें प्रवृत्ति न करे। सूखे ईंधनके रहते हुए भी अग्नि तभी तक उसे नहीं जलाती है जब तक उसके प्रतिबन्धक मणि मंत्रादि वहाँ पर विद्यमान रहते हैं। पर मणि मंत्रादिके बहाँसे हटते ही अग्नि अपने कार्यको उसी समय करने लगती है, यदि प्रतिबन्धक कारण वहाँसे हटा लिये जायें और फिर भी अग्नि जलानेरूप अपने कार्यको न करे तो वह अग्नि ही नहीं कही जा सकती है। यही बात ज्ञानके संबन्धमें भी समझना चाहिये । इससे सिद्ध हुआ कि केवली अपने ज्ञानके एक अंशसे नहीं जानते हैं किंतु वे समस्त ज्ञानांशोंसे युगपत् अपने ज्ञेयको ग्रहण करते हैं। (२) "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थावलोकनम् ॥"न्यायवि० श्लो० ४६५ । सिद्धिवि० प० १९४ । (२)-मज्ञं स्या-अ०,-मज्ञ स्या-आ०, ध० आ० ५० ५५३। उद्धतोऽयम-.. असति प्रतिबन्धने' ध० आ० प० ५३५ । अष्टसह० पू० ५० । "ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धके। दाह्येऽग्निहको न स्यात्कथमप्रतिबन्धकः ॥"-योगबि० श्लो० ४३१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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