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________________ गा०१] केवलणाणसिद्धि-उवसंहारो सव्वं जाणदि ति सिद्धं । ण पत्तमत्थं चेव गेण्हदि, तस्स सव्वगयत्तप्पसंगादो । ण चेदं संघार-विसप्पणहेउजोगस्स तत्थाभावादो। ण चेगावयवेण चेव गेण्हदि सयलाज्ञय में प्रवृत्ति करता है यह मानना चाहिये । इसप्रकार भी केवलज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। (३) जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाववाला होता है वह द्रव्य कहा जाता है। द्रव्यका यह लक्षण जीवमें भी पाया जाता है इसलिये वह द्रव्य सिद्ध होता है। तथा उसमें ज्ञान और दर्शनरूप विशेष लक्षणके पाये जाने के कारण वह पुद्गलादि अजीव द्रव्योंसे भिन्न सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार जीव द्रव्यकी स्वतन्त्र सिद्धि हो जाने पर उसके धर्मरूपसे केवलज्ञानकी भी सिद्धि हो जाती है । (४) यदि सूक्ष्मादि पदार्थोंका ज्ञान न माना जाय तो उनका अस्तित्व नहीं सिद्ध किया जा सकता है । तथा परमाणुओंके बिना स्कन्ध द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इत्यादि हेतुओंके द्वारा यद्यपि सूक्ष्मादि पदार्थों की सिद्धि हो जाती है, फिर भी जो पदार्थ कभी किसीके प्रत्यक्ष न हुए हों उनमें अनुमानकी प्रवृत्ति नहीं होती है इस नियमसे सूक्ष्मादि पदार्थोके साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। यह कहना कि सूक्ष्मादि पदार्थोंका क्रमसे ज्ञान भले ही हो जाओ पर उनका एकसाथ ज्ञान नहीं होता, युक्त नहीं है, क्योंकि जिनका क्रमसे ज्ञान हो सकता है उनका युगपत् ज्ञान माननेमें कोई आपत्ति नहीं आती है। इसप्रकार सूक्ष्मादि पदार्थोंको युगपत् जाननेवाले केवलज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। (५) ज्ञानावरण कर्ममें वृद्धि और हानि होनेसे जो तरतमभाव दिखाई देता है उससे भी केवलज्ञानके अंश सिद्ध हो जाते हैं, जो अपने अवयवीके अस्तित्वका ज्ञान कराते हैं। इस प्रकार अनुमानसे भी केवलज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। (६) जिसप्रकार सूर्य परिमित पदार्थोंको ही प्रकाशित करता है उसीप्रकार ज्ञान भी परिमित पदार्थोंको ही एकसाथ जान सकता है त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको नहीं, यदि ऐसा माना जाय तो त्रिकालवर्ती सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रुवस्वभाव हैं, सामान्यविशेषात्मक हैं, नित्यानित्य हैं, एकानेकात्मक हैं, विधिनिषेधरूप हैं, इसप्रकारका ज्ञान नहीं हो सकेगा। इससे भी त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार करनेवाले केवलज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। यद्यपि सभी पदार्थ सामान्यविशेषात्मक हैं इत्यादि ज्ञान छद्मस्थोंके भी पाया जाता है पर इससे केवलज्ञानका अभाव नहीं हो जाता है, क्योंकि सामान्यरूपसे समस्त पदार्थोंका ज्ञान करना अपने ज्ञानविशेषोंमें अनुस्यूत ज्ञानसामान्यका काम है और विशेषरूपसे समस्त पदार्थोंका ज्ञान करना ज्ञानविशेष अर्थात् केवलज्ञानका कार्य है । इसलिये आवरण कर्मके अभाव होने पर केवलज्ञान समस्त पदार्थोंको एकसाथ जानता है यह सिद्ध हो जाता है । यदि कहा जाय कि केवली प्राप्त अर्थात् सन्निकृष्ट अर्थको ही ग्रहण करता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलीको सर्वगतत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। यदि कहा जाय कि केवलीको सर्वगतत्वका प्रसंग प्राप्त होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि संकोच और विस्तारके कारणोंकी अपेक्षासे होनेवाले योगका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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