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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? वेत्ति ण पञ्चवहादुं जुत्तं; सावरणे वि जीवे असेसहविसयंबोहस्स सव्वमुप्पायवयधुवप्पयं, सव्वं विहिणिसेहप्पयं, सव्वं सामण्णविसेसप्पयं, सव्वमेयाणेयप्पयं, सत्तण्णहाणुववत्तीदो इच्चाइहेऊहिंतो समुप्पण्णस्स उबलंभादो। ण चावरणस्स विहलत्तं; विसेसविसए तव्यावारादो । तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवंतं सुहुमं ववहियं विप्पइदं च सर्व पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रुवात्मक हैं। सर्व पदार्थ विधि-निषेधात्मक हैं, सर्व पदार्थ सामान्यविशेषात्मक हैं और सर्व पदार्थ एकानेकात्मक हैं, यदि ऐसा न माना जाय तो उनका अस्तित्व नहीं बन सकता है इत्यादि हेतुओंसे उत्पन्न हुए समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले ज्ञानकी उपलब्धि सावरण जीवमें भी पाई जाती है। इससे निश्चित होता है कि केवली सर्व पदार्थों को जानते हैं।
यदि कहा जाय कि जब सावरण जीव भी उत्पाद-व्यय-ध्रुवात्मक आदिरूपसे समस्त पदार्थोंको जानता है तो आवरण कर्म निष्फल हो जायगा। सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष विषयमें आवरणका व्यापार होता है अर्थात् आवरणके क्षय होजानेपर जिसप्रकार केवलीको समस्त पदार्थोंकी उन उन अवस्थाओंका पृथक् पृथक् रूपसे ज्ञान होता है उसप्रकार सावरण मनुष्यको उनका ज्ञान नहीं होता है। इसी विशेषज्ञानको रोकनेमें आवरणका व्यापार है, अतएव वह सफल है। इसलिये निरावरण केवली भूत, भविष्यत्, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थोंको जानते हैं यह सिद्ध हो जाता है।
विशेषार्थ-ऊपर केवलज्ञानकी अस्तित्व-सिद्धिका जिन प्रमाणोंके द्वारा विचार किया गया है वे निम्न प्रकार हैं-(१) घटादि पदार्थों में पूरे अवयवीका प्रत्यक्ष ज्ञान न होकर जितना भाग दृष्टिगोचर होता है उतने भागका ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है फिर भी उससे पूरा अवयवी प्रत्यक्ष माना जाता है। समस्त जगतका यही व्यवहार है। इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इससे अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति देखी जाती है। इसीप्रकार स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशभूत मत्यादि ज्ञानका ग्रहण होनेसे केवलज्ञानकी सिद्धि हो जाती है । (२) यद्यपि छद्मस्थोंका ज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है फिर भी उससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि ज्ञानमात्रकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे होती है । ज्ञान आत्माका स्वभाव है पर संसारी जीवोंका ज्ञान सावरण होनेके कारण वह स्वयं अर्थोके ग्रहण करनेमें असमर्थ है, अतः उसे अपने ज्ञेयके प्रति प्रवृत्ति करने में इन्द्रियोंकी सहायताकी जरूरत पड़ती है, इससे इसका यह अर्थ कभी भी नहीं हो सकता कि ज्ञानमात्रकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे होती है। यदि ज्ञानकी उत्पत्ति सर्वथा इन्द्रियोंसे मानी जायगी तो इन्द्रियव्यापारके पहले ज्ञानका अभाव हो जानेसे जीव द्रव्यका भी अभाव हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है, अतः निरावरण ज्ञान इन्द्रियव्यापारकी अपेक्षाके बिना ही स्वयं अपने
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