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________________ गा०१] कम्मसरूववियारो हाणे तरतमभावण्णहाणुववत्तीदो आयरकणओवलावलीणमलकलंको व्व । ४५. पुव्वसंचियस्स कम्मस्स कुदो खओ? हिदिक्खयादो। हिदिखंडओ कत्तो? कसायक्खयादो | उत्तं च "कम्मं जोअणिमित्तं बज्झइ कम्मट्ठिदी कसायवसा । ताणमभावे बंधट्ठिदीणभावा सदइ सत्तं ॥११॥" अथवा तवेण पोराणकम्मक्खओ। उत्तं च “णाणं पयासयं तवो सोहओ संजमो य गुत्तियरो । तिण्हं पि समाजोए मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥१२॥" ६४६.आवरणक्खए संते वि परिमयं चेय पयासइ केवली णिरावरणसुज्जमंडलं अन्तरंग और बहिरंग मल निर्मूल नष्ट हो जाता है उसीप्रकार आस्रव भी कहीं पर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है, अन्यथा आस्रवकी हानिमें तर-तमभाव नहीं बन सकता है। ४५. शंका-पूर्वसंचित कर्मका क्षय किस कारणसे होता है ? समाधान-कर्मकी स्थितिका क्षय हो जानेसे उस कर्मका क्षय हो जाता है। शंका-स्थितिका विच्छेद अर्थात् स्थितिबन्धका अभाव किस कारणसे होता है ? समाधान-कषायके क्षय होनेसे स्थितिका विच्छेद होता है अर्थात् नवीन कर्मोंमें स्थिति नहीं पड़ती है। कहा भी है "योगके निमित्तसे कर्मोंका बन्ध होता है और कषायके निभित्तसे कर्मों में स्थिति पड़ती है। इसलिये योग और कषायका अभाव हो जानेपर बन्ध और स्थितिका अभाव हो जाता है और उससे सत्तामें विद्यमान कर्मोंकी निर्जरा हो जाती है ॥११॥" अथवा, तपसे पूर्वसञ्चित कर्मोंका क्षय होता है। कहा भी है-. "ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संयम गुप्ति करनेवाला है। तथा ज्ञान, तप और संयम इन तीनोंके मिलने पर मोक्ष होता है ऐसा जिन शासनमें कहा है ॥१२॥" ४६. “यदि कहा जाय कि आवरणके क्षय होजानेपर भी केवली निरावरण सूर्यमंडलके समान परिमित पदार्थको ही प्रकाशित करते हैं । सो ऐसा मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि (१)-कणओवलीणमल-स० । (२) "कम्म जोगनिमित्तं बज्झइ बंधठिई कसायवसा। अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधठिइकारणं णत्थि ॥"-सन्मति० १११९ । "कम्म जोगनिमित्तं बज्झइ बंधठिती कसायवसा। सुहजोयम्मी अकासायभावओऽवेइ तं खिप्पं ॥"-उप० गा० ४७० । (३) "संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ॥"-पञ्चा० गा० १४४ । 'तपसा निर्जरा च।"-त० सू०९।३। (४)-यं तं बो अ०. आ०।"णाणं पयासओ तओ सोधओ.."-मला० सम० गा० ८। “णाणं पयासओ सोवओ तवो.."-भग० आ० गा० ७६९। “सोवओ तवो-निर्जरानिमित्तं तप:"-भग० वि०। “नाणं पयासयं सोहओ तवो.."-आव०नि० गा० १०३। “शोधयतीति शोधकम, किन्तदित्याह-तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः तत् शोधकत्वे नोपकुरुते।" -आव०नि० टी० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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