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________________ १२० जयघवलासहित कषायप्राभृत हेतु क्षेत्रप्रमाण ३९ । भावके कारणभूत आवरणकी सिद्धि क्षेत्रप्रमाणका द्रव्य प्रमाणमें अन्तर्भाव नहीं , आवरणके बलसे भात्रियमाण केवलज्ञानको कालप्रमाण सिद्धि कालप्रमाणका द्रव्यप्रमाणमें अन्तर्भाव नहीं कर्म सहेतु और कृत्रिम है, इसकी सिद्धि व्यवहारकाल द्रव्य नहीं इसका समर्थन कर्म मर्त है इसकी सिद्धि ज्ञानप्रमाणके पांच भेद कर्म जीवसम्बद्ध है इसकी सिद्धि संशयादिकज्ञानप्रमाण नहीं, इसका समर्थन कर्मसे जीवको पृथक मान लेने में दोष प्रमाणोंमें ज्ञानप्रमाण ही प्रधान है अमूर्त जीवके साथ मूर्तकर्मके सम्बन्धकी सिद्धि ५९ मतिज्ञानका स्वरूप जीव और कर्मका अनादिकालसे बन्ध है श्रुतज्ञानका स्वरूप और उसके दो भेद ___इसमें हेतु अवधिज्ञानका स्वरूप जीवको मूर्त माननेमें आपत्ति मनःपर्ययज्ञानका स्वरूप कर्मको सहेतुक सिद्ध करके उसके कारणोंका केवलज्ञानका स्वरूप विचार नय, दर्शन आदिको अलगसे प्रमाण न कहने में . कर्म जीवके ज्ञान दर्शनका निर्मूल विनाश नहीं ___कर सकता, इसकी सिद्धि कसायपाहुडमें कितने प्रमाण संभव है ४४ कर्म अकृत्रिम है, अतः उसकी सन्तानका नाश आगमके पद और वाक्योंकी प्रमाणताका नहीं हो सकता है, इसका निराकरण समर्थन ४४ सम्यक्त्व और संयमादिक एकसाथ रह सकते केवलज्ञान असिद्ध नहीं है इसमें हेतु है, इसकी सिद्धि अवयव-अवयवीविचार सर्वदा पूरा संवर नहीं हो सकता, इस दोष समवायसंबन्धविचार ४७ का निराकरण मतिज्ञानादि केवलज्ञानके अंश है इसका समर्थन ४९ , प्रास्रवका समल विनाश देखा जाता है जीव अचेतनादि लक्षणवाला नहीं है इसका इसमें हेतु समर्थन पर्वसंचित कर्मक्षयका कारण अचेतनका प्रतिपक्षी चेतन पाया जाता है स्थितिक्षयका कारण __ इसमें प्रमाण प्रकारान्तरसे पूर्वसंचित कर्मक्षयका कारण अजीवसे जीवकी उत्पत्ति नहीं होती इसका आवरणके नाश होने पर भी केवलज्ञान परिसमर्थन ५४ मित पदार्थोंको ही जानता है, इस मतका जीव एक स्वतन्त्र द्रव्य है इसका समर्थन निराकरण जीवको ज्ञानस्वरूप न मानकर ज्ञानकी केवलज्ञान प्राप्त अर्थको ही ग्रहण करता है, उत्पत्ति इन्द्रियोंसे मानने में दोष __इस दोषका निराकरण इन्द्रियोंसे जीवकी उत्पत्ति मानने में दोष केवल ज्ञान एकदेशसे पदार्थों को ग्रहण करता सूक्ष्मादि अर्थोको न ग्रहण करनेसे जीव है, इस मतका खण्डन केवलज्ञानस्वरूप नहीं है, इस शंकाका केवली अभूतार्थका कथन करते हैं इसका निराकरण निराकरण केवलज्ञानका कार्य मतिज्ञान में नहीं दिखाई अरहंत अवस्थामें महावीर जिनके कितने देता, अतः वह उसका अंश नहीं है, इस ___ कर्मोका अभाव था इसकी सिद्धि शंकाका समाधान ५६ अघातिचतुष्क देवत्वके विरोधी हैं इस शंकाज्ञानप्रमाणके वृद्धि और हानिके तरतम का परिहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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