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________________ १०२ जयधवलासहित कषायप्राभृत है। उन्होंने लिखा है कि-अप्रकृतका निराकरण करके प्रकृतके निरूपण करनेके लिए निक्षेप करना चाहिए। भाव यह है कि निक्षेपमें वस्तुके जितने प्रकार संभव हो सकते हैं वे सब कर लिए जाते हैं और उनमें से विवक्षित प्रकारको ग्रहण करके बाकी छोड़ दिए जाते हैं। जैसे 'घटको लाओ' इस वाक्यमें आए हुए घटशब्दके अर्थको समझने के लिए घटके जितने भी प्रकार हो सकते हैं वे सब स्थापित कर लिए जाते हैं। जैसे-टेबिलका नाम घट रख दिया तो टेविल नामघट हुई, घटके आकारवाले चित्र में या चांवल आदि घटाकर शून्यपदार्थों में घटकी स्थापना करने पर वह चित्र और चांवल आदि स्थापनाघट हुए। जो मृत्पिड घट बनेगा वह मृत्पिंड द्रव्यघट हुआ। जो घटपर्यायसे विशिष्ट है वह भावघट हुआ। जिस क्षेत्र में घड़ा है उस क्षेत्रको क्षेत्रघट कह सकते हैं। जिस कालमें घड़ा विद्यमान है वह काल कालघट है। जिस ज्ञानमें घड़ेका आकार आया है वह घटाकार ज्ञान ज्ञानघट है। इस तरह अनेक प्रकारसे घड़ेका विश्लेषण करके निक्षेप किया जाता है। इनमें से वक्ताको लाने क्रियाके लिए भावघट विवक्षित है अतः श्रोता अन्य नामघट आदिका, जो कि अप्रकृत हैं निराकरण करके प्रकृत भावघटको लानेमें समर्थ हो जाता है। कहीं पर भावनिक्षेपके सिवाय अन्य निक्षेप विवक्षित हो सकते हैं, जैसे 'खरविषाण है। यहाँ खरविषाण, शब्दात्मक स्थापनात्मक तथा द्रव्यात्मक तो हो सकता है पर वर्तमानपर्याय रूपसे तो खरविषाणकी सत्ता नहीं है अतः यहां भावनिक्षेपका अप्रकृत होनेके कारण निराकरण हो जाता है। तथा अन्य निक्षेपोंका प्रकृतनिरूपणमें उपयोग कर लिया जाता है । अतः इस विवेचनसे यही फलित होता है कि पदार्थके स्वरूपका यथार्थ निश्चय करनेके लिए उसका संभाव्य भेदोंमें विश्लेषण करके अप्रकृतका निराकरण करके प्रकृतका निरूपण करनेकी पद्धति निक्षेप कहलाती है। इस प्रकार इस निक्षेपरूप विश्लेषण पद्धतिसे वस्तुके विवक्षित स्वरूप तक पहुंचनेमें पूरी मदद मिलती है। इसीलिए धवला तथा विशेषावश्यकभाष्यमें निक्षेप शब्दकी सार्थक व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि-जो निर्णय या निश्चयकी तरफ ले जाय वह निक्षेप है । घवला (पु०१ पृ० ३१) में निक्षेपका फल बतानेवाली एक प्राचीन गाथा उद्धृत है। उसमें अप्रकृतनिराकरण और प्रकृतनिरूपणके साथ ही साथ संशयविनाश और तत्वार्थावधारणको भी निक्षेपका फल नताया है। और लिखा है कि यदि अव्युत्पन्न श्रोता पर्यायार्थिक दृष्टिवाला है तो अप्रकृत अर्थका निराकरण करनेके लिए निपेक्ष करना चाहिए। और यदि द्रव्यार्थिकदृष्टिवाला है तो उसे प्रकृतनिरूपणके लिए निक्षेपों को सार्थकता है। पूर्णविद्वान या एकदेश ज्ञानी श्रोता तत्त्वमें यदि सन्देहाकुलित हैं तो सन्देह विनाशके लिए और यदि विपर्यस्त है तो तत्वार्थके निश्चय के लिए निक्षेपोंकी सार्थकता है। अकलङ्कदेवने लघी० (श्लो० ७४) में निक्षेपके विषयके सम्बन्धमें यह कारिका लिखो है "नयानुगतनिक्षेपैरुपाय दवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतापितान् ॥" अर्थात्-नयाधीन निक्षेपोंसे, जो भेदज्ञानके उपायभूत हैं, अर्थ वचन और ज्ञानस्वरूप पदार्थभेदोंकी रचना करके . . . . . 'इस कारिकामें अकलङ्कदेवने निक्षेपोंको नयाधीन बतानेके साथ ही साथ निक्षेपोंकी विषयमर्यादा अर्थात्मक, वचनात्मक और ज्ञानात्मक भेदोंमें परिसमाप्त की है। द्रव्य जाति गुण क्रिया परिभाषा आदि शब्दप्रवृत्तिके निमित्तोंकी अपेक्षा न करके इच्छा(१) पु० १ पृ० १० । (२) गा० ९१२ । (३) "णिण्णए गिन्छए खिववि ति णिक्यो ।" wwwwwwwwwww www Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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