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________________ प्रस्तावना नुसार जिस किसी वस्तुका जो चाहे नाम रखनेको नाम निक्षेप कहते हैं। जैसे किसी बालककी गजराज, संज्ञा यह समस्त व्यवहारोंका मूल हेतु है। जाति गुण आदिके निमित्त निक्षेपोंके किया जानेवाला शब्दव्यवहार नामनिक्षेपकी मर्यादामें नहीं आता है। जो नाम रखा लक्षण जाता है वस्तु उसीकी वाच्य होती है पर्यायवाची शब्दोंकी नहीं। जैसे गजराज नाम वाला करिस्वामी आदि पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य नहीं होगा । पुस्तक पत्र चित्र आदिमें लिखा गया लिप्यात्मक नाम भी नामनिक्षेप है। जिसका नामकरण हो चुका है उसकी उसी आकार वाली मूर्तिमें या चित्रमें स्थापना करना तदाकार या सद्भावस्थापना है। यह स्थापना लकड़ीमें बनाए गए, कपड़े में काढ़े गए, चित्र में लिखे गए, पत्थरमें उकेरे गए तदाकारमें 'यह वही है। इस सादृश्यमूलक अभेदबुद्धिकी प्रयोजक होती है। भिन्न आकारवाली वस्तुमें उसकी स्थापना अतदाकार या असद्भाव स्थापना है । जैसे शतरंजकी गोटोंमें हाथी घोड़े आदिकी स्थापना। नाम और स्थापना यद्यपि दोनों ही साङ्केतिक हैं पर उनमें इतना अन्तर अवश्य है कि नाममें नामवाले द्रव्यका आरोप नहीं होता जब कि स्थापनामें स्थाप्य द्रव्यका आरोप किया जाता है। नामवाले पदार्थकी स्थापना अवश्य करनी ही चाहिए यह नियम नहीं है, जब कि जिसकी स्थापना की जा रही है उसका स्थापनाके पूर्व नाम अवश्य ही रख लिया जाता है। नामनिक्षेपमें आदर और अनुग्रह नहीं देखा जाता जब कि स्थापनामें श्रादर और अनुग्रह आदि होते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार अनुग्रहार्थी स्थापना जिनका श्रादर या स्तवन करते हैं उस प्रकार नामजिनका नहीं । अनुयोगद्वारसूत्र (११) और बृहत्कल्पभाष्यमें नाम और स्थापनामें यह अन्तर बताया है कि स्थापना इत्वरा और अनित्वरा अर्थात् सार्वकालिकी और नियतकालिकी दोनों प्रकारकी होती है जब कि नामनिक्षेप नियमसे यावत्कथिक अर्थात् जबतक द्रव्य रहता है तबतक रहनेवाला सावकालिक ही होता है। विशेषावश्यकभाष्य (गा० २५) में नामको प्रायःसार्वकालिक कहा है। उसके टीकाकार कोट्याचार्यने उत्तरकुरु आदि अनादि नामोंकी अपेक्षा उसे यावत्कथिक अर्थात् सार्वकालिक बताया है। ___ भविष्यत् पर्यायकी योग्यता और अतीतपर्यायके निमित्तसे होनेवाले व्यवहारका आधार द्रव्यनिक्षेप होता है। जैसे अतीत इन्द्रपर्याय या भावि इन्द्रपर्यायके आधारभूत द्रव्यको वर्तमानमें इन्द्र कहना द्रव्यनिक्षेप है। इसमें इन्द्रप्राभृतको जाननेवाला अनुपयुक्तव्यक्ति, ज्ञायकके भूत भावि वर्तमानशरीर तथा कर्म नोकर्म आदि भी शामिल हैं। भविष्यत्में तद्विषयकशास्त्रको जो व्यक्ति जानेगा, वह भी इसी द्रव्यनिक्षेपकी परिधिमें आ जाता है। ___ वर्तमानपर्यायविशिष्ट द्रव्यमें तत्पर्यायमूलक व्यवहारका आधार भाव निक्षेप होता है। इसमें तद्विषयक शास्त्रका जाननेवाला उपयुक्त आत्मा तथा तत्पर्यायसे परिणत पदार्थ ये दोनों शामिल हैं। बृहत्कल्पभाष्यमें बताया है कि-द्रव्य और भावनिक्षेपमें भी पूज्यापूज्यबुद्धिकी दृष्टिसे अन्तर है। जिसप्रकार भावजिन श्रेयोऽर्थियोंके पूज्य और स्तुत्य होते हैं उस तरह द्रव्यजिन नहीं। विशेषावश्यकभाष्य (गा० ५३-५५) में नामादिनिक्षेपोंका परस्पर भेद बताते हुए लिखा है कि-जिसप्रकार स्थापना इन्द्र में सहस्रनेत्र आदि आकार, स्थापना करनेवालेको सद्भुत इन्द्रका अभिप्राय, देखनेवालोंको इन्द्राकार देखकर होनेवाली इन्द्रबुद्धि, इन्द्रभक्तोंके द्वारा की जानेवाली (१) तत्त्वार्थश्लो० पृ० १११। (२) विशेषा० गा० २५ । (३) जैनतर्कभाषा प० २५ । (४) धवला पु० ५ पृ० १८५ । (५) पीठिका गा० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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