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________________ प्रस्तावना १०१ उसको शाब्दिक, अरोपित, भूत, भावी और वर्तमान आदि पर्यायोंका विश्लेषण करना निक्षेपका मुद्रा हो सकता है। प्राचीन जैनपरम्परामें किसी भी पदार्थका वर्णन करते समय उसके अनेक प्रकारसे विश्लेषण करने की पद्धति पाई जाती है। जब उस वस्तुका अनेक प्रकारसे विश्लेषण हो जाता है तब उसमें से विवक्षित अंशको पकड़नेमें सुविधा हो जाती है। जैसे 'घटको लाओ' इस वाक्यमें घट और लानाका विवेचन अनेक प्रकार से किया जायगा। बताया जायगा कि घटशब्द, घटाकृति अन्यपदार्थ, घट बनने वाली मिट्टी, फूटे हुए घटके कपाल, घटवस्तु, घटको जानने वाला ज्ञान आदि अनेक वस्तुएं घट कही जा सकती हैं, पर इनमें हमें वर्तमान घटपोय ही विवक्षित है। इसी तरह शाब्दिक, अरोपित भत. भावि, ज्ञानरूप आदि अनेक प्रकारका 'लाना हो सकता है पर हमें नोभागमभाव निक्षेपरूप लाना क्रिया ही विवक्षित है। इस तरह पदार्थके ठीक विवक्षित अंशको पकड़नेके लिए उसके संभाव्य विकल्पोंका कथन करना निक्षेपका लक्ष्य है। इसीलिए धवला (पु० १. पृ० ३०) में निक्षेपविषयक एक गाथा उद्धृत मिलती है, यह किंचित् पाठ भेदके साथ अनुयोगद्वार सूत्र में भी पाई जाती है "जत्थ बहुं जाणिज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा। जत्य बहुवं ण जाणदि चउठ्यं णिविखवे तत्थ ॥" अर्थात् जहाँ बहुत जाने वहाँ उतने ही प्रकारोंसे पदार्थोका निक्षेप करे तथा जहाँ बहुत न जाने वहाँ कमसे कम चार प्रकारसे निक्षेप करके पदार्थोंका विचार अवश्य करना चाहिए। यही कारण है कि मूलाचार षडावश्यकाधिकार (गा० १७) में सामायिकके तथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति (गा० १८) में मंगल के नाम, स्थापना, द्रव्य,क्षेत्र, काल और भावके भेदसे ६ निक्षेप किए हैं तथा आवश्यकनियुक्ति (गा० १२९) में इन छहमें वचनको और जोड़कर सात प्रकारके निक्षेप बताए गए हैं। इस तरह यद्यपि निक्षेपोंके संभाव्य प्रकार अधिक हो सकते हैं तथा कुछ ग्रन्थकारोंने किए भी हैं परन्तु नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूपसे चार निक्षेप मानने में सर्वसम्मति हैं। पदार्थोंका यह विश्लेषण प्रकार पुराने जमानेमें अत्यन्त आवश्यक रहा है-श्रा० यतिवृषम त्रिलोकप्रज्ञप्ति (गा० ८२) में लिखते हैं कि-जो मनुष्य प्रमाण नय और निक्षेपके द्वारा अर्थकी ठीक समीक्षा नहीं करता उसे युक्त भी अयुक्त तथा अयुक्त भी युक्त प्रतिभासित हो जाता है। धवला (पु० १-पृ० ३१) में तो स्पष्ट लिख दिया है कि निक्षेपके बिना किया जाने वाला तस्वनिरूपण वक्ता और श्रोता दोनोंको ही कुमार्गमें ले जा सकता है। अकलङ्कदेव (लघी० स्व० वि० श्लो० ७३-७६) लिखते हैं कि श्रुतप्रमाण और नयके द्वारा जाने गए परमार्थ और व्यावहारिक अर्थोंको शब्दोंमें प्रतिनियत रूपसे उतारनेको न्यास या निक्षेप कहते हैं। इसी लघीयस्त्रय (श्लो०७०) में निक्षेपको पदार्थोंके विश्लेषण करनेका उपाय बताया है। और स्पष्ट निर्देश किया है कि मुख्यरूपसे शब्दात्मक व्यवहारका आधार नामनिक्षेप ज्ञानात्मक व्यवहारका आधार स्थापनानिक्षेप तथा अर्थात्मक व्यवहारके आश्रय द्रव्य और भाव निक्षेप होते हैं। प्रा०पूज्यपादने (सर्वार्थसि० ११५) निक्षेपका प्रयोजन बताते हुए जो एक वाक्य लिखा है. वह न केवल निक्षेपके फलको ही स्पष्ट करता है किन्तु उसके स्वरूप पर भी विशद प्रकाश डालता (१) इसी प्राशयकी गाथा विशेषावश्यकभाष्य (गा० २७६४) में पाई जाती है। और संकृत श्लोक धवला (पृ० १५) में उद्धृत है । (२) “स किमर्थः-अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च ।"सर्वार्थसि. १५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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