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________________ १०० ६ नय- निक्षेपादिविचार यों तो एकन्दररूपसे भारतीय संस्कृतियोंका आधार गौण - मुख्यभावसे तवज्ञान और चार दोनों हैं पर जैनसंस्कृतिका मूल पाया मुख्यतः आचार पर आश्रित है । तत्त्वज्ञान तो उस आचारके उद्गमन संपोषण तथा उपबृंहण के लिए उपयोगी माना गया है । आचारकी प्राणप्रतिष्ठा बाह्य क्रियाकाण्ड में नहीं है अपि तु उस उत्प्रेरणा बीजमें है जिसके बल पर बीतरागता अङ्कुरित पल्लवित और पुष्पित होकर मोक्षफलको देनेवाली होती है । अहिंसा ही एक ऐसा उत्प्रेरक बीज है जो तत्त्वज्ञान के वातावरण में आत्माकी उन्नतिका साधक होता है । कायिक अहिंसा के स्वरूप के संरक्षण के लिए जिस प्रकार निवृत्ति या यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिके विविध रूपों में अनेक प्रकारके व्रत और चारित्र अपेक्षित हैं उसी तरह वाचिक और मानसिक अहिंसा के लिए तत्वज्ञान और वचन प्रयोगके उस विशिष्ट प्रकारकी आवश्यकता है जो वस्तुस्पर्शी होने के साथ ही साथ हिंसा की दिशा में प्रवाहित होता हो । वचन प्रयोगकी दिशा तो वक्ताके ज्ञानकी दिशा या विचारदृष्टि के अनुसार होती है । या कहिये कि वचन बहुत कुछ मानस विचारोंके प्रतिबिम्बक होते हैं। मनुष्य एक समाजिक प्राणी है । वह व्यक्तिगत कितना भी एकान्तसेवी या निवृत्तिमार्गी क्यों न हो उसे अन्ततः संघ निर्माणके समय तो उन अहिंसाधारवाले सामान्य तत्त्वोंकी और दृष्टिपात करना ही होगा जिनसे विविध विचारवाले चित्रल व्यक्तियोंका एक एक संघ जमाया जा सके। यह तो बहुत ही कठिन मालूम होता है कि अनेक व्यक्ति एक वस्तुके विषयमें विरुद्ध दृष्टिकोण रखते हों और अपने अपने दृष्टिकोण के समर्थन के लिए ऐकान्तिकी भाषाका प्रयोग भी करते हों फिर भी एक दूसरे के प्रति मानस समता तथा वचनोंकी समतुला रख सकें। किन्तु कभी कभी तो इस दृष्टिभेदप्रयुक्त वचनवैषम्यके फलस्वरूप कायिक हिंसा अर्थात् हाथापाई तकका अवसर आ जाता है । भारतीय जल्पकथाका इतिहास ऐसे अनेक हिंसा काण्डोंसे रक्त रंजित है । चित्तकी समता के होने पर तो वचनों की गति स्वयं ही ऐसी हो जाती है जो दूसरोंके लिए आपत्तिके योग्य नहीं हो सकती । यही चित्तसमता श्रहिंसाकी संजीवनी है । जयधवलासहित कषायप्राभृत जैन तत्त्वदर्शियोंने इसी मानस अहिंसा के स्थैर्य के लिए तत्त्वविचारकी वह दिशा बताई है जो वस्तुस्वरूपका अधिकसे अधिक स्पर्श करने के साथ ही साथ चित्तसमताकी साधक है । उन्होंने बताया कि वस्तुमें अनन्त धर्म हैं, उसका अखण्ड स्वरूप वचनोंके अगोचर है । पूर्णज्ञान में ही वह अपने पूरे स्वरूप में झलक सकता है, हम लोगों के अपूर्णज्ञान और चित्तके लिए तो वह अपने यथार्थ पूर्ण रूपमें अगम्य ही है। इसीलिए उसे वाङ्मानसागोचर कहा है । उस अनन्तधर्मा तत्त्वको हम लोग अनेक दृष्टियोंसे विचारके क्षेत्र में उतारते हैं । हमारी प्रत्येक दृष्टियाँ या विचारकी दिशाएँ उस पूर्ण तत्त्वकी ओर इशारा मात्र करती हैं। कुछ ऐसी भी विकृत दृष्टियाँ होती हैं जो उस तत्त्वका अन्यथा ही भान कराती हैं । तात्पर्य यह है कि जैन तत्त्वदर्शियोंने अनन्तधर्मात्मक वाङ्मानसागोचर परिपूर्ण तत्वको अपूर्णज्ञान तथा वचनों के गोचर बनाने के लिए वस्तुस्पर्शी साधार उपाय बताए हैं। इन्हीं उपायोंमें जैनतत्त्वज्ञान के प्रमाण, निक्षेप, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि की चरचाओंका विशिष्ट स्थान है । नय, जगत् में व्यवहार तीन प्रकार से चल रहे हैं- कुछ व्यवहार ऐसे हैं जो शब्दाश्रयी हैं कुछ ज्ञानाश्रयी और कुछ अर्थाश्रयी । उस अनन्तधर्मा वस्तुको संव्यवहार के निक्षेपका मुद्दा लिए इन तीन व्यवहारोंका आधार बनाना निक्षेप है । तात्पर्य यह है कि अनेकान्तवस्तुको ऐसे विभागों में बाँट देना जिससे वह शब्दव्यवहारका विषय बन सके । अथवा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जगत् के विविध समझने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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